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नैगमादि सप्त नय
आदि विशेषणों का प्रयोग करना चाहिए ।
विशेषणों के प्रयोग के समय यह ध्यान भी रखना चाहिए कि . विशेषण, विशेष्य के निकटतम हो, यदि उनके बीच में अन्य शब्द होंगे तो अर्थ अस्पष्ट या विपरीत भी हो सकता है। एक दूध की डेरी पर यह सूचना लिखी देखी यहाँ शुद्ध भैंस का दूध मिलता है। इस वाक्य से क्या समझा जाए? भैंस शुद्ध है या दूध शुद्ध है ? अतः यहाँ भैंस का शुद्ध दूध मिलता है - यह वाक्य बात को अधिक स्पष्ट करता है। आजकल ऐसी दोषपूर्ण भाषा का प्रयोग इतना अधिक होता जा रहा है कि भाषा का रूप ही बदलता जा रहा है, परन्तु 'शब्दनय', ऐसे प्रयोगों को अनुचित मानता है।
शब्दय के अनुसार समान लिंग या संख्यावाले शब्द ही एकार्थवाची हो सकते हैं, अन्य नहीं। इस सन्दर्भ में नयदर्पण, पृष्ठ 305 - 306 पर व्यक्त किये गये श्री जिनेन्द्रजी वर्णी के विचार ध्यान देने योग्य हैं -
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जिसप्रकार भिन्न - स्वभावी पदार्थ भिन्न ही होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी अभेद नहीं देखा जा सकता; उसीप्रकार भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी भिन्न ही होते हैं, उनमें भी किसी प्रकार की एकार्थता घटित नहीं हो सकती। इसप्रकार दार, भार्या, कलत्र ये भिन्न लिंगवाले तीन शब्द अथवा नक्षत्र, पुनर्वसू, शतभिषज ये भिन्न संख्यावाले तीन शब्द और इसीप्रकार अन्य भी भिन्न स्वभाववाची शब्द, भले ही व्यवहार में या लौकिक व्याकरण में एकार्थवाची समझे जाएँ, परन्तु शब्दनय इनको भिन्न अर्थ का वाचक समझता है।
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अतः समान लिंग व संख्या वाले शब्दों में ही एकार्थवाचकता बन सकती है। जैसे इन्द्र, पुरन्दर, शक्र ये तीनों शब्द, समान