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नय-रहस्य सम्बन्धित शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूतनय का उल्लेख किया गया है; अतः इन तीन नयों को शब्दनय के भेद भी माना गया है, क्योंकि ये तीन नय शब्द-प्रयोगों पर ही विचार करते हैं तथा उन्हें व्यवस्थित करनेवाले नियमों का प्रतिपादन करते हैं। शब्द, पुद्गलद्रव्य की व्यंजन पर्याय है, अतः इन्हें व्यंजननय या पर्यायार्थिकनय भी कहा जाता है।
हमारे लोकजीवन में भाषा की महत्ता से हम सभी भलीभाँति परिचित हैं। हमारी बोलचाल की भाषा में अनेक दोष भी होते हैं, जिनका परिहार व्याकरण द्वारा किया जाता है। व्याकरण-सम्मत भाषा में और अधिक कसावट लाने के लिए तथा शब्द-प्रयोगों की बारीकियों को समझने के लिए शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूतनय का प्रयोग किया जाता है।
सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 1, सूत्र 33 की टीका में शब्दनय की परिभाषा बताते हुए कहा है कि लिंग, संख्या, साधन आदि के व्यभिचार (दोष) की निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है। - यहाँ 'व्यभिचार' शब्द से आशय सदोष कथन से है, क्योंकि वस्तु-स्वरूप के प्रतिपादन में निर्दोष भाषा का प्रयोग होना चाहिए। लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष, उपग्रह (उपसर्ग) आदि सम्बन्धी प्रयोगों में दोष उत्पन्न हो जाएँ तो लोक में भले ही स्वीकार कर लिये जाते हैं तथा अपवाद के रूप में व्याकरण को भी स्वीकार हो जाते हैं, परन्तु शब्दनय उन्हें स्वीकार नहीं करता अर्थात् वह दोष को दोष ही . मानता है। __वाक्य-प्रयोग में जिस लिंग, संख्या, काल आदि का प्रयोग उचित है, वैसा न करके अन्य लिंग, संख्या आदि का प्रयोग करना ही लिंग, संख्या आदि का व्यभिचार कहलाता है।