SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 299 नैगमादि सप्त नय तो खरीदने एवं बेचने - दोनों क्रियाओं के सम्पन्न हो जाने पर ही होनेवाला है। खरीदने-बेचने, बेचने-खरीदने की यह क्रिया, जितनी अधिक होगी, लाभ भी उतना ही अधिक होनेवाला है। इसीप्रकार व्यवहारनय, संग्रहनय द्वारा संगृहीत विषयों को विभाजित करता है और संग्रहनय, व्यवहारनय द्वारा विभाजित विषयों को संगृहीत करता है। यद्यपि संग्रह और विभाजन की ये क्रियाएँ, परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं, तथापि उनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है, अपितु वे एक-दूसरे की पूरक क्रियाएँ ही हैं, क्योंकि यदि संग्रहनय द्वारा अनेक पदार्थ संगृहीत नहीं किये जाएँगे तो व्यवहारनय, विभाजन किसका करेगा? इसीप्रकार यदि व्यवहारनय द्वारा पदार्थ विभाजित नहीं होंगे तो संग्रहनय किसका संग्रह करेगा? ___संग्रह और विभाजन की यह क्रिया, ज्ञान में जितनी अधिक सम्पन्न होती है, वस्तु-स्वरूप भी ज्ञान में उतना ही अधिक स्पष्ट ' प्रतिभासित होता है। ऋजुसूत्रनय सामान्यग्राही द्रव्यार्थिकनय के तीन भेद संकल्पग्राही नैगमनय, अद्वैतग्राही संग्रहनय एवं द्वैतग्राही व्यवहारनय का वर्णन करने के पश्चात् विशेषग्राही पर्यायार्थिकनयों के चार भेदों में ऋजुसूत्रनय पर विचार करने का क्रम है। श्लोकवार्तिक, नय-विवरण, श्लोक 75 के अनुसार - ऋजुसूत्रनय मुख्यरूप से क्षण-क्षण में ध्वस्त होनेवाली पर्यायों को वस्तुरूप से विषय करता है, विद्यमान होते हुए भी विवक्षा नहीं होने से इसमें द्रव्य की गौणता है। द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 210-211 में ऋजुसूत्रनय के
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy