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गया स्पष्टीकरण ध्यान देने योग्य है, जो इसप्रकार है
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नय - रहस्य
सादृश्यास्तित्व से लेकर स्वरूपास्तित्व के बीच ऐसे अनेक बिन्दु हैं, जो संग्रह व व्यवहार दोनों ही नयों के विषय बनते हैं, पर दोनों नयों के दृष्टिकोण, अलग-अलग होने से दोनों के मुख परस्पर विरुद्ध ही रहते हैं ।
संग्रहनय संग्रहोन्मुखी है और व्यवहारनय विभाजनोन्मुखी । जब हम जीवों को गतियों की अपेक्षा चार भागों में विभाजित करते हैं और कहते हैं कि जीव के चार प्रकार हैं- देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी; तब 'मनुष्य', व्यवहारनय का विषय बनता है; किन्तु जब हम 'मनुष्य' शब्द से मनुष्य गति के समस्त जीवों का संग्रह करते हैं, तब वह संग्रहन्य का विषय बनता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न दृष्टियों से देखे जाने पर मनुष्य, संग्रह और व्यवहार दोनों ही नयों का विषय बन जाता है।
संग्रह-व्यवहार के इस चक्र के मध्य स्थित असंख्य बिन्दुओं को हम अपनी आवश्यकतानुसार ग्रहण करते रहते हैं और अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए उनके संग्रह और व्यवहारपने का उपयोग किया करते हैं।
परस्पर विरुद्ध दिखनेवाले संग्रहनय और व्यवहारनय, उन दो व्यापारी बन्धुओं के समान हैं, जिनमें एक माल खरीदने का काम करता है और दूसरा बेचने का । यद्यपि खरीदने और बेचने की क्रियाएँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं, तथापि उनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है, अपितु वे एक-दूसरे की पूरक क्रियाएँ हैं, क्योंकि यदि खरीदनेवाला भाई माल खरीदकर न लाए तो फिर बेचनेवाला भाई बेचेगा क्या ? इसीप्रकार यदि माल बेचा न जाएगा तो खरीदने मात्र से क्या लाभ होनेवाला है? लाभ