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________________ 297 नैगमादि सप्त नय संग्रहनय और अशुद्ध संग्रहनय तथा व्यवहारनय के भी शुद्ध व्यवहारनय और अशुद्ध व्यवहारनय - ऐसे दो भेद भी किये गये हैं। . यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि समानता के आधार पर अनेक वस्तुओं में एकता, स्थापित करने पर भी प्रत्येक पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता नष्ट नहीं हो जाती है। यदि उनकी स्वतन्त्र सत्ता का सर्वथा निषेध किया जाए तो अद्वैतैकान्त का प्रसंग आता है जो कि जैनशासन में निषिद्ध है। इसीप्रकार सर्वथा द्वैत भी जैनशासन को अनिष्ट है, क्योंकि अनेक वस्तुओं की स्वतन्त्र सत्ता, भिन्न-भिन्न होने पर भी उनमें जातिगत समानता के आधार पर स्थापित की गई एकता भी सर्वथा काल्पनिक नहीं है। इसकी उपयोगिता पर संग्रहनय के प्रकरण में चर्चा की जा चुकी है। __ व्यवस्था के लिए संग्रह और व्यवहार दोनों नय उपयोगी हैं। संग्रहनय समष्टि की ओर ले जाता है तो व्यवहारनय व्यष्टि की ओर। जिसप्रकार लोक में व्यक्ति और समाज दोनों उपयोगी हैं, उसीप्रकार आत्महित में नर-नारकादि पर्यायों का तथा उनमें विद्यमान स्वतन्त्र जीवद्रव्य का स्वरूप जानना परम आवश्यक है। प्रश्न - मनुष्यादि पर्यायें किस नय का विषय बनती हैं? उत्तर - ढाई द्वीप के सभी जाति, भाषा, धर्म आदि के मनुष्यों को 'मनुष्य' शब्द में समाहित कर लिया जाए तो यह संग्रहनय का विषय है और यदि त्रस जीवों के एक भेद के रूप में मनुष्य पर्याय को देखा जाए तो वह व्यवहारनय का विषय है। इसीप्रकार अन्य पर्यायों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। . इस सन्दर्भ में परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 261-262 पर दिया
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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