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नय-रहस्य जीव और अजीव - इन दो जाति के द्रव्यों का भेद करना, शुद्ध व्यवहार है। जीव-पुदगलादि की अवान्तर सत्ता अशुद्ध संग्रहनय का विषय है
और जीव के संसारी और सिद्ध तथा अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल - ऐसे पाँच भेद करना, अशुद्ध व्यवहारनय है।
अशुद्ध व्यवहारनय के द्वारा किया जानेवाला यह विभाजन, अन्तिम अविभाज्य अंश तक किया जा सकता है।
प्रश्न - नैगमादि सप्त नयों के अन्तर्गत व्यवहारनय में और निश्चय-व्यवहारनय के अन्तर्गत व्यवहारनय में क्या अन्तर है?
उत्तर - सप्त नय में प्रयुक्त व्यवहारनय, अनेक पदार्थों के संग्रह में भिन्न-भिन्न लक्षणों के आधार पर भेद करते हुए अन्तिम अविभाज्य इकाई तक अर्थात् सादृश्य-अस्तित्व से स्वरूप-अस्तित्व तक पहुँचता है। जबकि निश्चय-व्यवहारवाला, व्यवहारनय उस अन्तिम इकाई का अन्य इकाइयों से कर्ता-कर्म, स्व-स्वामी आदि सम्बन्ध स्थापित करता है। यह व्यवहार, निश्चय का प्रतिपादक और निश्चय द्वारा निषेध्य है। यह व्यवहार, अभेद वस्तु में भेद करता है तो दो भिन्न इकाइयों में सम्बन्ध भी स्थापित करता है।
संग्रहनय और व्यवहारनय, एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य करने पर भी एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि संग्रहनय, सन्धि करता है तो व्यवहारनय, सन्धि-विच्छेद करता है। यदि संग्रहनय, समास करता है तो व्यवहारनय, समास-विग्रह करता है।
नैगम, संग्रह और व्यवहारनय - इन तीन नयों को द्रव्यार्थिकनय के अन्तर्गत माना गया है तो ऋजुसूत्र आदि चार नयों में पर्यायार्थिकनय के अन्तर्गत माना है। यद्यपि महासत्ता को विषय बनानेवाला संग्रहनय, शुद्ध द्रव्यार्थिकनय और उसमें अवान्तर सत्ता के भेद को विषय बनानेवाला व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय कहलाता है, तथापि संग्रहनय के शुद्ध