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अध्यवसानादिभाव चैतन्य के साथ सम्बन्ध होने का भ्रम तो उत्पन्न करते हैं, लेकिन वास्तव में वे आत्मस्वभाव या जीवस्वभाव नहीं हैं, पुद्गलस्वभाव हैं।'
सभी अध्यवसानादिभाव जीव हैं - ऐसा अभूतार्थ व्यवहारनय के द्वारा भगवान सर्वज्ञदेव ने दर्शाया है, क्योंकि जिस प्रकार म्लेच्छों को मलेच्छभाषा, वस्तु-स्वरूप बताती है, उसी प्रकार व्यवहारीजनों को व्यवहारनय, परमार्थ का प्रतिपादक है, अपरमार्थभूत होने पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्तिका निमित्त होने से उस व्यवहारनय को बताना न्यायसंगत है । चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् । अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी ॥
अर्थात् जिसका सर्वस्वसार चैतन्यशक्ति से व्याप्त है - यह जीव इतना मात्र ही है, इस चित्शक्ति से शून्य सर्वभाव पौद्गलिक हैं । 3
आचार्य जयसेन ने युक्ति देते हुए कहा है कि उस जीव के शुद्धनिश्चयनय से ये सब ( रागादिभाव ) नहीं हैं; क्योंकि ये सभी पुद्गल परिणाममय होने शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं । '
जीव के प्रधानतया जीवद्रव्य और जीवपदार्थ - यही दो प्रमुख भेद हैं। यद्यपि द्रव्यप्रधान दृष्टि से तो जीवद्रव्य में सभी गुण- पर्यायों का समावेश हो जाता है, उनमें विकारी - अविकारी भावों का भी समावेश हो जाता है, लेकिन तत्त्वप्रधान दृष्टि से जीवपदार्थ में जीवत्वप्रधान गुणपर्यायों का ही समावेश होता है । इतना ही नहीं, व्यवहारजीवत्व में कारणभूत शरीर, इन्द्रियादि को भी व्यवहार से जीवपदार्थ में शामिल कर लिया गया है । वहाँ उनके पौद्गलिकत्व को गौण करके उनमें जीवत्वपने की कारणभूत विशेषता को मुख्य किया गया है । इस अपेक्षा से जीवतत्त्व
1. समयसार, गाथा 45 टीका 3. आत्मख्याति, कलश 36 नय - रहस्य
2. समयसार, गाथा 46
4. तात्पर्यवृत्ति, समयसार 156-160
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