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के उदय को उसका निमित्त होने से विकारक कहा गया है, अत: विकार्य और विकारक दोनों को पुण्य या पाप कहा गया है, अत: जीवतत्त्व का सम्बन्ध नहीं होने से रागादिभावों को आत्मा का नहीं कहा गया है। यहाँ द्रव्य-भाव रूप आस्रवादि को एक समान जीव से भिन्न सिद्ध किया है। ऐसा नहीं है कि द्रव्यास्रवादि कुछ अधिक भिन्न हैं और भावात्रवादि कुछ कम भिन्न हैं, क्योंकि तत्त्व-भिन्नता की दृष्टि से दोनों समानरूप से भिन्न हैं। वर्ण आदि हों या राग आदि हों, ये सभी भाव आत्मा से भिन्न हैं।
इस सम्बन्ध में यह आगम-वचन मननीय हैं - . एदे सव्वे भावा, पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। - केवलिजिणेहि भणिया, कह ते जीवो त्ति वुगांति॥
यहाँ स्पष्टतः यह कहा गया है - अरहन्तदेव सर्वज्ञ भगवान ने अध्यवसानादि. (मिथ्यात्व-राग-द्वेषादि) भावों को पुद्गलपरिणाममय कहा है, वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होने में समर्थ नहीं हैं।
जो अध्यवसानादि भावों को जीव कहते हैं, वे परमार्थवादी नहीं हैं। क्योंकि उनका पक्ष आगम, युक्ति और स्वानुभव से बाधित है। वे जीव नहीं हैं' - यह सर्वज्ञ का वचन है, वह तो आगम है। स्वाभाविकरूप से उत्पन्न हुए राग-द्वेष से मलिन अध्यवसान जीव नहीं हैं, क्योंकि जैसे - सुवर्ण, कालिमा से भिन्न होता है, उसी प्रकार अध्यवसान से भिन्न चित्स्वभावरूप जीव, भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है - यह स्वानुभवगर्भित युक्ति है।
अध्यवसानादि भावों को उत्पन्न करने वाला आठ प्रकार का कर्म है, वह समस्त ही पुद्गलमय है - ऐसा सर्वज्ञ का वचन है।..... 1. आत्मख्याति, समयसार 13 2. वही, कलश 37 3. समयसार, गाथा 44
नय-रहस्य