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क्योंकि उपादान का कथन करनेवाला नय, यथार्थ का कथन करनेवाला होने से निश्चय कहलाता है और निमित्त का कथन करनेवाला नय, अयथार्थ का कथन करनेवाला होने से व्यवहार कहलाता है ।
इसका समाधान यह है कि रागादि विकारीभाव आस्रवभाव हैं और आत्मा चैतन्यमयी जीवभाव है, उनमें तत्त्वभेद है अतः आस्रवभाव, जीवभाव तो है नहीं; इसलिए आस्रवभाव को जीवभाव व्यवहार से ही कह सकते हैं, निश्चय से नहीं । जिसके आदि-मध्यअन्त में जो व्याप्त होता है, वह उसका कहलाता है तथा रागादि के आदि-मध्य-अन्त में कर्म का उदय ही व्याप्त है, अतः उसे निश्चय से कर्म का कहा है तथा कर्म पौद्गलिक होते हैं, अतः रागादिभावों को भी पौद्गलिक कहा है।
जीव के चैतन्यमयी भावों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है और न ही आत्मा के लक्ष्य से वह भाव हुआ है; अतः उसे निश्चय से जीव का कैसे कहा जा सकता है ? मात्र आत्मा के प्रदेशों में उस रागादिभाव का अस्तित्व होने से उसे जीव का कहा जाता है - यह व्यवहार है। निश्चय से तो दोनों के प्रदेशों को भी भिन्न-भिन्न माना गया है । निश्चय - व्यवहारनय की यहाँ यह परिभाषा भी घटित हो जाती है कि जिस तत्त्व या पदार्थ का जो भाव हो, उसे उसी तत्त्व या पदार्थ का कहना, निश्चयनय है; उसे अन्य तत्त्व या पदार्थ का कहना, व्यवहारनय है। अतः आस्रवतत्त्व के भाव (भावास्रव ) को आस्रवपदार्थ (द्रव्यास्रव) का कहना, निश्चयनय है और आस्रव के भाव को जीव का कहना, व्यवहारनय है।
इसी प्रकार अन्य तत्त्वों में भी समझ लेना चाहिए।
रागादि भावों को पुण्य या पापरूप विकार्य कहा गया है और कर्म
1. आत्मख्याति, समयसार 181
नय - रहस्य
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