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गये हैं। इसी प्रकार परमभावग्राहक दव्यार्थिकनय, उपनय से उपजनित कैसे है ? - इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है कि यह नय, क्षायोपशमिक आदि विशेष ज्ञानपर्यायों का भी गौणरूप से ग्राहक है -
"शंका - यदि यह नय, परमभाव का ग्राहक है तो इसका उपनय से उत्पन्न होना कैसे सम्भव है?
समाधान - क्योंकि यह नय, क्षायोपशमिक आदि विशेष ज्ञानपर्यायों का भी गौणरूप से ग्राहक है।"
ऐसे-ऐसे अनेक प्रकरणों का भण्डार यह श्रुतभवनदीपक नयचक्र है; अतः प्रत्येक मुमुक्षु को अध्यात्म-रुचि को पुष्ट करने हेतु इस ग्रन्थ का गहनतम अध्ययन करना चाहिए।
एक और प्रकरण की ओर मैं समयसार के पाठकवर्ग का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि समयसार में जगह-जगह पर वर्ण से लेकर रागादि-गुणस्थान पर्यन्त के भावों को निश्चयनय से पुदगल का कहा गया है और व्यवहारनय से जीव का कहा है।
उसके सम्बन्ध में यह प्रश्न है कि जिस द्रव्य के भाव को उसी का कहना, निश्चयनय का लक्षण है और उसे अन्य द्रव्य का कहना, व्यवहारनय का लक्षण है। वर्णादि को निश्चयनय से पुद्गल का कहना तो उचित है, लेकिन रागादि और गुणस्थान को भी निश्चयनय से पुदगल का और व्यवहारनय से जीव का कहना क्या उचित है? - इस विषय का तात्त्विक विश्लेषण करना अनिवार्य है।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि रागादिभावों का उपादान तो आत्मा है और पुद्गलकर्म तो उनके निमित्त हैं, फिर भी रागादिभावों को आत्मा का कहना व्यवहार क्यों है और उन्हें पुद्गल का कहना निश्चय क्यों है? 1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 46
नय-रहस्य
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