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________________ या जीवपदार्थ के भी दो भेद किये गये हैं- निश्चयजीव और व्यवहारजीव । इस विषय को आस्रव आदि के विवेचन द्वारा और अच्छी तरह सिद्ध किया जा सकता है । आस्रवतत्त्व के दो भेद हैं - द्रव्यास्रव और भावास्रव । दूसरी भाषा में कहें तो इन्हें अजीवास्रव और जीवास्रव भी कह सकते हैं। यहाँ प्रश्न यह है कि जीवास्रव या भावास्त्रव तो जीवद्रव्यात्मक है और अजीवास्त्रव या द्रव्यास्त्रव पुद्गलद्रव्यात्मक है तो फिर इन दो द्रव्यों की क्रियाओं को सामान्य से एक तत्त्व क्यों स्वीकार किया गया है ? उसका उत्तर यह है कि भले ही द्रव्यास्त्रव और भावास्त्रव - दो भिन्न-भिन्न द्रव्यरूप हों, लेकिन तत्त्वदृष्टि से वे एक हैं, अतः एक ही तत्त्व के भेद हैं और वह है आस्त्रवत्व या आस्रवतत्त्व | आस्रवतत्त्व के कारण ही इनकी एक पदार्थरूप संज्ञा आस्रवपदार्थ की गयी है । भावास्रव अर्थात् राग-द्वेष - मोहभावों या शुभाशुभ योगों का जीव में नवीन आगमन होना, वह भावास्रव है । इसी प्रकार द्रव्यास्रव अर्थात् कार्मणवर्गणा का आत्मा के साथ सम्बन्धित होने के लिए आगमन होना, वह द्रव्यास्रव है; अत: द्रव्यास्रव और भावास्रव में आस्रवपना, सामान्य होने से दोनों को एक आस्रवतत्त्व या आस्रवपदार्थ माना है । इसी प्रकार बन्धपना सामान्य के कारण द्रव्यबन्ध और भावबन्ध - दोनों को एक बन्धतत्त्व या बन्धपदार्थ माना है । संवरपना सामान्य के कारण द्रव्यसंवर और भावसंवर - दोनों को एक संवरतत्त्व या संवरपदार्थ माना है । निर्जरापना सामान्य होने के कारण द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा - दोनों को एक निर्जरातत्त्व या निर्जरापदार्थ माना है । मोक्षपना सामान्य होने के कारण द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष - नय - रहस्य 30
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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