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नैगमादि सप्त नय
शुद्ध संग्रहनय में सभी पदार्थों की सत्ता का संग्रह करके विश्व, जगत् आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है और अशुद्ध संग्रहनय में एक ही जाति की अवान्तर सत्ताओं का संग्रह करके जीव, पुद्गल आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। सभी समूहवाचक संज्ञाओं का प्रयोग अशुद्ध संग्रहनय का प्रयोग है। अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रावक, ज्ञानी, अज्ञानी, पापी, पुण्यात्मा, भोगी, त्यागी आदि हजारों शब्दों के माध्यम से हम अशुद्ध संग्रहनय का ही प्रयोग करते हैं, क्योंकि इन शब्दों के द्वारा उनके वाच्यभूत एक जाति के अनेक पदार्थों का सामूहिक ज्ञान किया जाता है।
जिनागम में चौदह जीवसमास अथवा बीस प्ररूपणाएँ कही गई हैं। यह सब अशुद्ध संग्रहनय का ही प्रयोग है। यहाँ अशुद्धता से आशय रागादि विकार न होकर महासत्ता में गर्भित भेदों को ग्रहण करने से है। अशुद्ध संग्रहनय का विषय, मात्र एक जाति-विशेष के पदार्थों का .. समुदाय होता है, अन्य जाति के पदार्थ उसकी सीमा से बाहर हो जाते हैं, अतः सम्पूर्ण पदार्थों का संग्रह नहीं किया जाता, यही अपूर्णता ही उसकी अशुद्धता है; जबकि शुद्ध संग्रहनय के विषय में सम्पूर्ण सृष्टि समा जाती है, यही पूर्णता ही उसकी शुद्धता है।
'द्रव्य' शब्द से समस्त द्रव्यों का, 'गुण' शब्द से समस्त गुणों का तथा ‘पर्याय' शब्द से समस्त पर्यायों का संग्रह करना भी अशुद्ध संग्रहनय या अपर संग्रहनय है।
द्रव्य के समान क्षेत्र, काल और भावों के संग्रह के प्रयोग भी हमारे जीवन में देखे जाते हैं। ग्राम, नगर, देश आदि शब्दों से आकाश के विशेष प्रदेशों का संग्रह' करके सम्बोधित किया जाता है। काल के भी 'एक समयवर्ती अनेक अंशों का संग्रह करके घड़ी, घंटा, दिवस, माह, वर्ष, शताब्दी आदि का प्रयोग किया जाता है। भाव के अन्तर्गत जीव