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नय-रहस्य और भी भेद किये जा सकते हैं। यह अत्यन्त व्यापक नय है, जिसमें द्रव्य-गुण-पर्यायरूप समस्त अर्थात्मक जगत् तथा भूत-वर्तमानभविष्यरूप ज्ञानात्मक जगत् समा जाता है।
संग्रहनय समस्त पदार्थों की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्ता मात्र को ग्रहण करनेवाला ज्ञान, संग्रहनय कहलाता है। श्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्दिजी लिखते हैं -
प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण द्वारा अपनी जाति का विरोध न करते हुए, सभी विशेषों का एकत्वरूप से ग्रहण करना, संग्रहनय है।' सत्ता एक ऐसी विशेषता है, जिसके आधार पर समस्त विश्व का (अलोकसहित) संग्रह किया जा सकता है।
यहाँ संग्रह करने के लिए बाहर में कुछ नहीं करना है, ज्ञान में समस्त विश्व को मात्रं सत् रूप से जानना है अर्थात् समस्त द्रव्यों के जातिगत भेद को गौण करके सत्ता मात्र को मुख्य करके जानना है।
विश्व के सभी पदार्थों की संयुक्त सत्ता को महासत्ता कहा जाता है तथा प्रत्येक द्रव्य की भिन्न-भिन्न सत्ता को अवान्तर सत्ता कहा जाता है। महासत्ता को जाननेवाला ज्ञान, शुद्ध संग्रहनय, सामान्य संग्रहनय या पर संग्रहनय कहा जाता है और अवान्तर सत्ता को जाननेवाला ज्ञान, अशुद्ध संग्रहनय, विशेष संग्रहनय तथा अपर संग्रहनय कहा जाता है।
1. देखो, नय-विवरण, पृष्ठ 239; यहाँ अर्थपर्याय नैगमनय के तीन, व्यंजनपर्याय नैगमनय के छह और अर्थ-व्यंजनपर्याय नैगमनय के तीन तथा द्रव्य-पर्याय नैगमनय के आठ भेद किये गये हैं; आगे जाकर उन्होंने प्रत्येक नैगमनय सम्बन्धी नैगमाभास का कथन भी लिया है, जो मूलतः पठनीय है। 2. नय-विवरण, श्लोक 63