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________________ 290 नय-रहस्य भले ही वह कार्य, वस्तु-जगत् में अनिष्पन्न है। जिस पाषाण में से मूर्ति बनाना निश्चित हो चुका है, उस पाषाण को दिखाकर यही कहा जाता है कि यह रही आपके ऑर्डर की मूर्ति। भावी चौबीसी के तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा भी इसी नय का प्रयोग है। धवला में कहा गया है कि किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष, नारकी है।' यद्यपि पापी पुरुषों की संगति करनेवाला व्यक्ति, नरक जाने की इच्छा नहीं रखता, तथापि उसके वर्तमान परिणाम देखकर, ज्ञानीजनों के चित्त में उसके भविष्य के बारे में कल्पना खड़ी होती है, अतः वे उसे भावी नैगमनय से नारकी कह देते हैं। नैगमनय की उक्त व्याख्या ज्ञाननय की अपेक्षा है। अर्थनय की अपेक्षा भी नैगमनय का विचार जिनागम में किया गया है। इस सन्दर्भ में आचार्य विद्यानन्दि लिखते हैं - अथवा 'नैकं गमो नैगमः' - इस व्युत्पत्ति के अनुसार, जो एक को विषय नहीं करता, वह नैगमनय है। अर्थात् जो मुख्य-गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है, वह नैगमनय है। यहाँ सर्वार्थसिद्धि वचनिका का यह प्रश्नोत्तर भी ध्यान देने योग्य है - प्रश्न - दो धर्मों या धर्म और धर्मी दोनों को ग्रहण करनेवाले ज्ञान को प्रमाण कहना चाहिए, उसे नैगमनय कैसे कह सकते हैं? उत्तर - प्रमाण दोनों को प्रधान करता है, पर यह नैगमनय दोनों 1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृष्ठ 527 2. नय-विवरण, श्लोक 35, श्लोकवार्तिक
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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