________________
नय के तीन रूप : शब्दनय, अर्थनय, ज्ञाननय
283
यद्यपि वास्तविक जगत् में इन काल्पनिक वस्तुओं की सत्ता नहीं है, अतः इन्हें असत् कहा जाता है; तथापि ज्ञान में उनकी ज्ञानात्मक सत्ता तो बन ही जाती है, अतः इन ज्ञानात्मक सत्ताओं को कथंचित् सत् भी कहा जा सकता है।
ज्ञाननय ज्ञान में झलकनेवाले पदार्थों अर्थात् ज्ञेयाकार ज्ञान को ही जानता है। यह तथ्य, ज्ञान के स्व-पर प्रकाशक स्वभाव का रहस्य खोलकर, आत्मानुभूति की राह को आसान बना देता है। पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचनों में ज्ञाननय का यह रहस्य, उनकी सादी और गम्भीर भाषा में इन शब्दों में अनेक बार व्यक्त होता है - खरेखर आत्मा पर ने नथी जाणतो, पर-सम्बन्धी पोतानी ज्ञानपर्याय ने जाणे छे। अर्थात् वास्तव में आत्मा, पर को नहीं जानता, पर-सम्बन्धी अपनी ज्ञानपर्याय को जानता है।
ज्ञान में होनेवाला ज्ञेयाकार परिणमन वस्तुतः ज्ञान ही है, ज्ञेय नहीं। यहाँ यह बात भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि ज्ञेयाकार परिणमन भी ज्ञेय से निरपेक्ष और स्वतन्त्र है अर्थात् जैसा ज्ञेय है, वैसा ही ज्ञान हो यह आवश्यक नहीं है, अपितु ज्ञान की जैसी तत्समय की योग्यता होती है, वैसा ज्ञेयाकार परिणमन होता है अर्थात् ज्ञेय जाना जाता है, ज्ञेय चाहे वैसा हो या न हो। रस्सी के सम्बन्ध में भ्रम से होनेवाले सर्प के ज्ञान से तथा ज्ञान में ज्ञात होनेवाली असत्कल्पनाओं से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है। जरा सोचिए ! ज्ञेयाकार परिणमन ही ज्ञेय को जानना है और ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञान ही है, अतः ज्ञेय को जानना वस्तुतः ज्ञान को ही जानना क्यों न कहा जाए ?
ग
|
-
अर्थनय से देखा जाए तो ज्ञान, द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक वस्तु को जानता है - यह ज्ञान का पर - प्रकाशक स्वरूप है और यदि ज्ञाननय से देखा जाए तो वह ज्ञान, ज्ञान में बननेवाले प्रतिबिम्ब अर्थात् ज्ञेयाकार