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नय-रहस्य
ज्ञान को ही जानता है - यह ज्ञान का स्व-प्रकाशक स्वरूप है। इसप्रकार अर्थनय की अपेक्षा ज्ञान पर-प्रकाशक है और ज्ञाननय की अपेक्षा ज्ञान स्व-प्रकाशक है। यदि ज्ञान, पर को जानता ही नहीं - ऐसा कहा जाए तो अर्थनय का लोप होता है तथा पर को जानता हुआ ज्ञान, वास्तव में अपने ज्ञेयाकार (ज्ञान) स्वरूप का प्रकाशन करता है - ऐसा न माना जाए तो ज्ञाननय का लोप होता है।
ज्ञान के परिणमन को ज्ञेयाकार कहना अर्थात् ज्ञेय के नाम से कहना, पर-सापेक्ष कथन होने से व्यवहार है तथा ज्ञेयाकार ज्ञान, ज्ञान ही है - ऐसा कहना स्वाश्रित होने से परमार्थ है, जो कि व्यवहार द्वारा प्रतिपाद्य है और व्यवहार का निषेधक है।
ज्ञान में प्रतिबिम्बित होनेवाले ज्ञेयों का विश्लेषण करते हुए डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 236 पर लिखते हैं -
दर्पण में प्रतिबिम्बित.मोर, मोर तो है ही नहीं, मोर का परिणमन भी नहीं है; दर्पण की ही स्वच्छ अवस्था है, दर्पण का ही परिणमन है। उसे जाननेवाले ज्ञान का ज्ञेय भी दर्पण है, दर्पण की निर्मल अवस्था है, मोर नहीं।
इसीप्रकार ज्ञान में प्रतिबिम्बित होनेवाले सत्-असत् पदार्थ, तत्सम्बन्धी विकल्प-संकल्प-कल्पनाएँ ज्ञान ही हैं, ज्ञान का ही परिणमन है, ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं। उन्हें जाननेवाले ज्ञान का ज्ञेय, वह ज्ञान ही है, ज्ञानपर्याय ही है, उस ज्ञेयरूप ज्ञान में झलकनेवाले अन्य पदार्थ नहीं। __ ऐसी स्थिति होने पर भी जिसप्रकार मोर में मुग्ध लोग, दर्पण में प्रतिबिम्बित मोर को देखकर उसे दर्पण न कहकर मोर ही कह देते हैं; उसीप्रकार ज्ञानपर्याय में प्रतिबिम्बित सत्-असत् ज्ञेयों को