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नय के तीन रूप : शब्दनय, अर्थनय, ज्ञाननय
281. है। शब्दों की संख्या, संख्यात मात्र है, वे मात्र स्थूल अर्थ को विषय करते हैं, अतः शब्दनय का विषय सीमित है।
आचार्य अमृतचन्द्रदेव, समयसार ग्रन्थ की 5वीं गाथा की टीका में शब्दों को शब्दब्रह्म कहकर गौरव प्रदान करते हुए लिखते हैं - इह खलु स्यात्पद-मुद्रित-शब्द-ब्रह्मोपासन-जन्मा। कल्पना कीजिए - यदि इस जगत् में शब्द न हो तो जगत् का क्या स्वरूप होगा? तब न केवल दिव्यध्वनि, अपितु आचार्यों के धर्मोपदेश, लिखित जिनवाणी तथा परस्पर वचन-व्यवहार आदि सभी का लोप हो जाएगा, सारी सृष्टि गूंगी हो जाएगी; अतः न केवल तीर्थ की प्रवृत्ति, अपितु लोक-व्यवहार में भी शब्दों का विशेष महत्त्व है। . नैगमादि सप्त नयों में भी शब्दनय का पृथक् उल्लेख किया गया है, वहाँ शब्दनय के स्वरूप का विशेष भेद-प्रभेदसहित वर्णन किया गया है। सप्त नयों के प्रकरण में उसकी विशेष चर्चा की जाएगी।
अर्थनय . . अर्थात्मक वस्तु अर्थात् द्रव्य-गुण-पर्याय को जाननेवाला ज्ञान, अर्थनय है। अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायों सहित जगत् के समस्त पदार्थ, अर्थ होने से अर्थनय के विषय हैं; अतः शब्दनय की अपेक्षा अर्थनय का विषय अनन्तगुना अधिक है।
यदि अर्थनय की सत्ता न मानी जाए तो उसके विषयभूत पदार्थों का सद्भाव भी सिद्ध न हो सकेगा, अतः पदार्थों के अभाव में उन्हें जाननेवाले ज्ञान का भी अभाव मानना पड़ेगा। जब पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान ही नहीं रहेगा तो शेष जगत् की सत्ता होना - न होना एक जैसा ही हो जाता है। इसप्रकार पदार्थों के ज्ञान के अभाव में हेय-उपादेय का ज्ञान भी नहीं होगा, जिससे मोक्षमार्ग और मोक्ष के भी लोप होने का प्रसंग आता है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि ज्ञेयाकार ज्ञान