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________________ पर्यायार्थिकनय के भेद-प्रभेद . 277 अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय, वर्तमान ज्ञान को रागादि से भिन्न देखता हुआ सामान्य ज्ञान का आविर्भाव करता हुआ, वर्तमान ज्ञानपर्याय में ही ज्ञायक दिखाने लगता है और निर्विकल्प दशा प्रगट हो जाती है। इस नय को अन्य गुणों की पर्यायों पर भी घटित किया जा सकता है, परन्तु आत्मानुभूति के प्रयोजन की अपेक्षा यहाँ मात्र ज्ञानपर्याय पर घटित किया है। प्रश्न - पर्यायार्थिकनय में शुद्ध-अशुद्ध भेद तो कहे हैं, परन्तु भेदकल्पनानिरपेक्ष या भेदकल्पनासापेक्ष - ऐसे भेद क्यों नहीं कहे हैं? उत्तर - द्रव्य तो भेदाभेद स्वरूप है, अतः उसे भेदकल्पना से निरपेक्ष/सापेक्ष देखा जा सकता है, परन्तु पर्याय तो द्रव्य का ही अंश है, भेदरूप ही है, व्यतिरेकी है, अतः उसका कोई अभेद स्वरूप ही नहीं बनता; इसलिए उसमें भेदकल्पना से निरपेक्षता या सापेक्षता के कोई भेद नहीं बनते। पर्यायों में अभेदता का आधार तो द्रव्य है, वही उनमें व्याप्त है, जो द्रव्यार्थिकनय का विषय है। प्रश्न - क्या पर्यायार्थिकनय के छहों भेद सभी द्रव्यों की पर्यायों में घटित होते हैं? उत्तर - (1) अनादिनित्य पर्यायें सुमेरु पर्वत आदि पुद्गल की ही हैं। अभव्य की संसार पर्याय भी अनादिनित्य है। जीव के कुछ गुणों को छोड़कर शेष अनन्त गुणों की पर्यायें भी अनादिनित्य हैं। धर्मादि द्रव्यों की पर्यायें भी अनादि-अनन्त एक जैसी हैं, अतः अनादिनित्य पर्यायार्थिकनय, सभी द्रव्यों की पर्यायों में यथायोग्य घटित हो सकता है। (2) सादिनित्य पर्याय, मात्र सिद्ध पर्याय ही है; अतः यह नय, मात्र मुक्त जीवों की पर्यायों पर ही घटित होता है। (3+4) सत्तानिरपेक्ष तथा सत्तासापेक्ष अनित्य शुद्ध/अशुद्ध
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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