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पर्यायार्थिकनय के भेद - प्रभेद
अर्हन्त भगवान तथा हमारी पर्यायों में असमानता और समानता
प्रवचनसार, गाथा 80 तथा उसकी टीका में मोहक्षय हेतु अपनी आत्मा को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने की प्रेरणा देते हुए उसके लिए अर्हन्त भगवान को द्रव्य-गुण- पर्याय से जानने का उपदेश दिया गया है और दोनों के द्रव्य-गुण- पर्याय में निश्चय से अन्तर नहीं है - ऐसा कहा है।
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अर्हन्त भगवान के और हमारे द्रव्य-गुण तो समान हैं, परन्तु पर्यायों में समानता है या नहीं - इस प्रश्न का समाधान, कर्मोपाधिनिरपेक्ष अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय तथा कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य-अशुद्धपर्यायार्थिकनयों से हो जाता है । अर्हन्त भगवान की पर्यायें कर्मोपाधियों से रहित हैं और हमारी पर्यायें कर्मोपाधियों से सहित हैं यह अन्तर तो स्पष्ट है ही, परन्तु पर्यायों के सामान्य स्वभाव की दृष्टि से देखा जाए तो अर्हन्त भगवान के समान हमारी पर्यायें भी उत्पाद - व्ययरूप अथवा व्यतिरेक लक्षणवाली हैं, चिद्विवर्तन की ग्रन्थियाँ हैं । अतः कर्मोपाधिनिरपेक्ष अनित्य- शुद्धपर्यायार्थिकनय का विषय ही हमारी पर्यायों को अर्हन्त की पर्याय के समान सिद्ध करता है। कर्मोपाधियों को गौण करके मात्र पर्यायस्वभाव को देखा जाए तो हमें भी अपनी पर्यायें, अर्हन्त भगवान जैसी चिदविवर्तन की ग्रन्थियाँ दिखने लगेंगी। इसप्रकार अर्हन्त भगवान और हमारी पर्यायों में समानता, निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर भी समझी जा सकती है
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(1) भगवान के केवलज्ञान के समान हमारा मति - श्रुतज्ञान भी रागादि विकारों से रहित स्वभाववाला है।
(2) केवलज्ञान के समान हमारा वर्तमान ज्ञान भी स्व-परप्रकाशक स्वभाववाला है।
(3) द्रव्य - गुण की शुद्धता का निर्णय करनेवाली हमारी ज्ञानपर्याय में भी शुद्धता का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है।