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पर्यायार्थिकनय के भेद-प्रभेद मानता है; अतः यह स्पष्ट है कि दिन, अच्छा-बुरा न होते हुए भी उसमें अच्छे-बुरे का व्यवहार हुए बिना नहीं रहता।
यही स्थिति आत्मा की पर्यायों की है। अन्य पाँच द्रव्यों में तो कोई कर्मोपाधि नहीं होती। पुद्गल की स्कन्ध पर्याय को अशुद्ध कहा जाने पर भी उन्हें कर्मोपाधि नहीं कहा जाता। धर्मास्तिकायादि चार द्रव्यों के उत्पाद-व्यय तो निरुपाधिक ही होते हैं। आत्मा में भी श्रद्धाज्ञान-चारित्र-सुख-दर्शन आदि कुछ गुणों में ही कर्मोपाधि के निमित्त से विकार देखा जाता है। आत्मा के अन्य अनन्त गुणों का परिणमन भी निरुपाधिक ही होता है।
यहाँ कर्मोपाधि-सापेक्ष से आशय मुख्यतया कर्मोदय-सापेक्ष औदयिक भावों अर्थात् मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भावों से है, क्योंकि औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों में भी क्रमशः कर्म का उपशम, क्षयोपशम और क्षय निमित्त होता है। फिर भी सामान्य ज्ञानस्वभाव की अपेक्षा इन निर्मल पर्यायों को भी कर्मोपाधिजन्य कहा जाता है। समयसार, गाथा 15 की टीका में सामान्य ज्ञान के आविर्भाव के प्रकरण में ज्ञानस्वभाव को परोक्षरूप से पर्यायरूप औदयिकादि चारों भावों से भिन्न देखने की प्रेरणा दी है। गाथा 17-18 की टीका में भी आबाल-गोपाल सबको जिस ज्ञानपर्याय में अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सदाकाल अनुभव में आ रहा है - ऐसा कहा है। वह ज्ञानपर्याय भी सामान्य ज्ञानरूप तथा पर्यायगत पारिणामिक भावरूप है तथा औपशमिक आदि चार भावों से भिन्न है।
नियमसार, गाथा 50 में तो आत्मा को औदयिकादि चार भावों से भिन्न स्पष्टरूप से बताया है। यद्यपि वहाँ द्रव्यस्वभाव को कर्मोपाधि से भिन्न कहा है और यहाँ स्पष्टतया पर्याय की बात है, तथापि