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________________ 272 नय - रहस्य द्रव्यस्वभाव की सन्मुखता का पुरुषार्थ प्रगट करना चाहिए, क्योंकि यही प्रयोजनभूत है, यही सच्ची शुद्ध द्रव्यदृष्टि है। कर्मोपाधि से निरपेक्षता और सापेक्षता से वर्णित पर्याय की अशुद्धता और शुद्धता पर्यायार्थिकनय का पाँचवाँ और छठवाँ भेद, पर्यायों को कर्मोपाधि से क्रमशः निरपेक्ष तथा सापेक्ष देखने से कर्मोपाधिनिरपेक्ष अनित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय तथा कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य-अशुद्धपर्यायार्थिकनय कहा गया है। वस्तुतः पर्याय तो वस्तु के प्रवाह-क्रम का सूक्ष्म अंश है, अतः द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावस्वरूप वस्तु में काल के एक समयवर्ती अंश को ही पर्याय शब्द से कहा जाता है। समुद्र की लहरों के समान कालप्रवाह में नवीन अंश उत्पन्न (व्यक्त) होता है तथा उसका पूर्ववर्ती अंश विलीन होता है। यही पर्यायों का उत्पाद-व्यय है। कालांश तो कालरूप है और कर्मोपाधियाँ भाववाची हैं; अतः काल को भाव से निरपेक्ष देखना कर्मोपाधिनिरपेक्ष अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय है तथा काल को भावों से मिलाकर देखना, कर्मोपाधिसापेक्ष अनित्य-अशुद्धपर्यायार्थिकनय है। इन नयों के प्रयोग, हमारे लौकिक जीवन में भी देखे जाते हैं। किसी दिन कोई अच्छा काम हुआ तो लोग कहते हैं कि आज का दिन बहुत अच्छा रहा और किसी दिन कोई बुरा काम हो तो लोग कहते हैं कि आज का दिन बहुत खराब रहा। दिन तो दिन है, काल-प्रवाह का स्थूल अंश है, वह न तो अच्छा होता है और न बुरा। वह तो अच्छाई या बुराई से निरपेक्ष है, अच्छे-बुरे लगनेवाले कार्यों की सापेक्षता से हम उसे अच्छा या बुरा कहते हैं। जिस दिन किसी की शादी हो या कोई अन्य इष्ट लाभ हो तो वह उस दिन को अच्छा मानता है तथा उसी दिन किसी अन्य व्यक्ति को कोई नुकसान हुआ हो तो वह उसी दिन को बुरा
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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