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नय-रहस्य उत्पाद-व्ययनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय समझ लिया जाए तो इस प्रश्न का समाधान सहज हो सकता है कि द्रव्य तो त्रिकाल शुद्ध ही है, उसकी शुद्धता स्वीकार करके स्वयं शुद्ध होने या द्रव्य की शुद्धता स्वीकार नहीं करके स्वयं अशुद्ध रहने के लिए पर्याय स्वतन्त्र है।
पर्याय की स्वतन्त्रता की पराकाष्ठा तो देखिए कि वह जिस द्रव्यस्वभाव में अहं करती है, उसे अपना स्वरूप मानती है, सर्वस्व मानती है; उसी से वह निरपेक्ष रहकर शुद्ध होती है। वह स्वतन्त्ररूप से द्रव्य में विसर्जित होकर, अपने में अनन्त ज्ञान-सुखरूपी वैभव को उत्पन्न करके उसे भोगती है, क्योंकि द्रव्य तो अनन्त शक्तियों का पिण्ड है, उसकी उत्पाद-व्ययरूप व्यक्ति स्वतन्त्र और उससे निरपेक्ष है।
पर्याय की स्वतन्त्रता की श्रद्धा, हमारी वृत्ति को पर से निरपेक्ष बनाकर और पर्याय के कर्तृत्व की वासना भी मिटाकर, स्वयं को द्रव्य जैसा अनुभव करने को प्रेरित करती है।
प्रश्न - जब पर्याय ध्रुव-सत्ता से निरपेक्ष है तो सत्तासापेक्ष अनित्य-अशुद्धपर्यायार्थिकनय की क्या उपयोगिता है? उसे सत्तासापेक्ष देखा ही क्यों जाए?
उत्तर - उत्पाद-व्यय को सत्ता से निरपेक्ष जानते समय सापेक्षता वाला पहलू गौण था, लेकिन उसका अभाव नहीं हुआ था। प्रमाणदृष्टि से वस्तु तो दोनों अंशों का अखण्ड पिण्ड है; अतः मात्र निरपेक्षता जानने से सम्यक् नय नहीं, नयाभास हो जाता है। वस्तु, सर्वथा अपरिणामी नहीं है, कथंचित् परिणामी और कथंचित् अपरिणामी हैं। कथंचित् परिणामी पक्ष से विचार करें तो उत्पाद-व्यय भी द्रव्य के ही अंश हैं। यह पर्याय किस द्रव्य की है, इसमें कौन व्यापक है, इसका स्वामी या कर्ता-भोक्ता कौन है? इत्यादि प्रश्नों का समाधान, सत्तासापेक्ष अशुद्धपर्यायार्थिकनय से होता है।