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पर्यायार्थिकनय के भेद-प्रभेद
आत्मा के स्वरूप का निर्णय करने के लिए ये नय, अत्यन्त उपयोगी हैं। द्रव्यार्थिकनय के भेदों में उत्पाद-व्ययनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है तो पर्यायार्थिकनय के भेदों में सत्तानिरपेक्ष अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय है। . ..इन दोनों नयों से सिद्ध होता है कि वस्तु के दोनों अंश कथंचित् निरपेक्ष और एक-दूसरे से अप्रभावित हैं; अतः ध्रुव सत्ता, पर्याय में विद्यमान शुद्धता/अशुद्धता से न तो प्रभावित होती है और न स्वयं उन्हें प्रभावित करती है। खास बात तो यह है कि द्रव्य-पर्याय की परस्पर निरपेक्षता को यहाँ उनकी शुद्धता कहा जा रहा है और उनकी परस्पर सापेक्षता को उनकी अशुद्धता कहा जा रहा है।
उक्त तथ्य से उत्पाद-व्ययरूप पर्याय की भी स्वतन्त्रता सिद्ध होती है। पूज्य गुरुदेवश्री, पर्याय को परद्रव्यों से निरपेक्ष और स्वतन्त्र तो कहते ही हैं, उसे स्वद्रव्य से भी निरपेक्ष और स्वतन्त्र कहते हैं। द्रव्यस्वभाव में विद्यमान कर्ता-कर्म-करण आदि शक्तिरूपे षट्कारकों से एक-एक समय की पर्याय के षट्कारक भिन्न हैं। इसप्रकार प्रत्येक पर्याय, अपनी योग्यता से अपने स्वकाल में स्वयं होती है - ऐसे अनेक गहन रहस्य इस सत्तानिरपेक्ष शुद्धपर्यायार्थिकनय द्वारा समझ में आ सकते हैं।
- खेद की बात है कि भगवान आत्मा, द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा त्रिकाल शुद्ध और शुद्धाशुद्ध पर्यायों से निरपेक्ष है' - स्वानुभूतिजनक यह महामन्त्र, आज भी अनेक विद्वानों की समझ में नहीं आता। बड़ेबड़े विद्वानों को यह तर्क देते हुए सुना जा सकता है कि जब द्रव्य शुद्ध है तो पर्याय अशुद्ध कैसे हो सकती है? और पर्याय तो अशुद्ध है, अतः द्रव्य भी अशुद्ध ही है तथा सिद्धदशा होने पर ही उसे शुद्ध मानना चाहिए, लेकिन यदि यह सत्तानिरपेक्ष अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिकनय तथा