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नय-रहस्य
अपेक्षा से वस्तु में अविरोध से रहना - यही अनेकान्त है, जिसे स्याद्वाद के द्वारा समझा/समझाया जाता है।
इसप्रकार यद्यपि गुण एवं धर्मों में अन्तर स्पष्ट किया है, तथापि गुणों की परिभाषा और स्वरूप, जो जिनागम में अनेक स्थलों पर स्पष्ट किया है कि गुण, द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और उसकी सम्पूर्ण अवस्था में रहते हैं, लेकिन यह विशेषता तो धर्मों और शक्तियों में भी होती है। अस्तित्व और नास्तित्व धर्म भी द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाये जाते हैं।
विशेष बात यह है कि नित्य-अनित्य धर्म, द्रव्य-पर्याय सापेक्ष होने पर भी सम्पूर्ण वस्तु, द्रव्य की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य कही जाती है - इस बिन्दु पर गम्भीरता से विचार करना आवश्यक है।
यहाँ तो गुण, धर्म एवं शक्ति के स्वरूप पर विचार किया जा रहा है। प्रवचनसार गाथा 80 की टीका में द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप अत्यन्त संक्षेप में स्पष्ट करते हुए कहा है - अन्वय, वह द्रव्य है; अन्वय के विशेषण, वे गुण हैं तथा अन्वय के व्यतिरेक, वे पर्यायें हैं।
उक्त परिभाषा से गुणों का स्वरूप स्पष्ट होता है कि वे द्रव्य के विशेषण हैं। जैसे एक मनुष्य में ईमानदारी, सरलता, बुद्धिमत्ता आदि अनेक विशेषताएँ होती हैं; वैसे एक द्रव्य में अस्तित्व, वस्तुत्व तथा चेतन/अचेतन आदि अनन्त विशेषताएँ त्रिकाल विद्यमान रहती हैं। इन्हें ही गुण शब्द से जाना जाता है। गुण के लिए अंग्रेजी का क्वालिटी ' (Quality) शब्द उपयुक्त है।
'धर्म' शब्द से वस्तु में विद्यमान सापेक्षिक योग्यताओं को जाना जाता है। यद्यपि ये भी वस्तु में त्रिकाल विद्यमान रहते हैं, तथापि इन्हें अपेक्षा के बिना नहीं समझा जा सकता। जैसे, एक व्यक्ति में ईमानदारी