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द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद
वर्णीजी ने उक्त चारों नयों को शुद्ध-अशुद्ध संज्ञा देते हुए उनके नामकरण भी इसप्रकार किये हैं -
1. स्वद्रव्यादिचतुष्टयग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय। 2. परद्रव्यादिचतुष्टयविच्छेदक अशुद्धद्रव्यार्थिकनय। 3. परमपारिणामिकभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय।
4. गुण व त्रिकालवर्ती पर्यायों में अनुगत पिण्ड अन्वय नामवाला अशुद्धद्रव्यार्थिकनय। . . इन चार नयों में कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय तथा भेदकल्पना से निरपेक्षता या सापेक्षता का कोई प्रसंग नहीं है, अतः नयचक्रों में इन्हें शुद्ध या अशुद्ध नहीं कहा है। परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 218-219 पर डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने इस प्रकरण पर विशेष प्रकाश डाला है।
श्री जिनेन्द्र वर्णी जैसे गहन चिन्तक विद्वान् की, इन चार नयों को दो युगल में शुद्ध-अशुद्ध कहने की अपेक्षा इसप्रकार हो सकती है -
1. अन्वय द्रव्यार्थिकनय - गुण-पर्यायों में व्याप्त अन्वयरूप द्रव्य, इस नय का विषय है। गुण और पर्यायें, विशेषणरूप और व्यतिरेकरूप होने से अन्वय से कथंचित् भिन्न हैं; अतः अन्वय को उससे भिन्न अंशों की सापेक्षता से देखा जाना, यही अशुद्धता है। उत्पाद-व्यय से सापेक्षता को अशुद्ध कहने के समान इसे भी अशुद्ध कहना अनुचित नहीं है।
2. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय - यह नय, द्रव्यांश को उसके स्वचतुष्टय में व्याप्त देखता है, क्योंकि स्वचतुष्टय ही वस्तु का निज वास्तविक स्वरूप है; अतः इसे शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के भेदों में सम्मिलित करना अनुचित नहीं लगता।
3. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय - यह नय, वस्तु का उससे भिन्न पदार्थों की अपेक्षा नास्तित्व देखता है, इसमें भी पर-पदार्थों की