________________
258
नय-रहस्य निरूपित करते हुए समयसार, गाथा 320 की टीका में कहते हैं -
_औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिकभाव तो पर्यायरूप हैं, एक शुद्ध (परम) पारिणामिकभाव ही द्रव्यरूप है। पदार्थ, परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्यायरूप है। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - इन तीन पारिणामिक भावों में शुद्ध जीवत्वशक्ति लक्षणवाला (परम) पारिणामिकभाव, शुद्ध (परमभावग्राहक) द्रव्यार्थिकनय के आश्रित होने से निरावरण है तथा शुद्ध (परम) पारिणामिकभाव के नाम से जाना जाता है। वह बन्ध-मोक्षरूप पर्याय से रहित है।
परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषय को ही निश्चयव्यवहार के प्रकरण में परमशुद्धनिश्चयनय का विषय कहा है; अतः ये परमशुद्धनिश्चयनय एवं परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय नयाधिराज हैं।
.' चाहे निश्चय-व्यवहारनयों का प्रकरण हो या द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयों का प्रकरण हो, प्रयोजन तो द्रव्य-पर्यायात्मक स्व-ज्ञेय को जानकर, परम उपादेयभूत शुद्धात्मतत्त्व का अवलम्बन करके, सादि-अनन्त शाश्वत सिद्धदशा प्रगट करने का ही है। क्या अन्वयादि चार नयों की शुद्ध/अशुद्ध संज्ञा सम्भव है? __यहाँ तीन प्रकार के शुद्ध एवं तीन प्रकार के अशुद्धद्रव्यार्थिकनय तथा अन्वयादि चार द्रव्यार्थिकनयों का संक्षिप्त विवेचन किया गया। यद्यपि अन्वयादि चार द्रव्यार्थिकनयों का शुद्धता और अशुद्धता से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि श्री जिनेन्द्र वर्णीजी ने अन्वय द्रव्यार्थिकनय एवं परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय को अशुद्ध एवं स्वद्रव्यादिग्राहक एवं परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय को शुद्ध के भेदों में शामिल करके 5 शुद्धद्रव्यार्थिकनय एवं 5 अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहे हैं।
1. नय-दर्पण, पृष्ठ 366-368