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द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद कहकर इसकी महिमा प्रगट की है। ..
संयोग एवं सापेक्षता-निरपेक्षता के विकल्पों से पार यह परमभाव ही परमपारिणामिकभावरूप द्रव्यस्वभाव है। इसकी प्राप्ति को ही निर्वाण निरूपित करते हुए द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 413 में कहा है - जिन शासन में इस परमपारिणामिकभाव को ही परमपद
और सारभूत कहा गया है, यही अविनाशी तत्त्व है, इसके लाभ को ही निर्वाण कहते हैं।
इसे जानने की अनिवार्यता स्पष्ट करते हुए गाथा 374 में कहते हैं - जब तक जीव का अपने इस परमस्वभाव में श्रद्धान, ज्ञान और आचरण नहीं है; तब तक वह मूढ़ अज्ञानी, संसार-समुद्र में भटकता है।
. प्रश्न - यदि यह परमभाव ही श्रद्धेय, ज्ञेय और ध्येय है तो क्या . शुद्धद्रव्यार्थिकनय का विषयभूत कर्मोपाधिरहित, उत्पाद-व्ययरहित
और भेद-कल्पनानिरपेक्ष द्रव्य आश्रयभूत नहीं है? इन तीन नयों का वर्णन करते समय तो इनके विषयभूत द्रव्य को आश्रय करने योग्य कहा गया था?
उत्तर - जो परमभाव है, वह कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेदकल्पना से भिन्न ही है, परन्तु वे उसमें हैं या नहीं? – ऐसे विकल्पों से भी अथवा द्रव्य-स्वभाव के अन्य विशेषणों सम्बन्धी विकल्पों से आत्मानुभूति नहीं होती, इसलिए वे हैं' या 'नहीं' के विकल्पों से पार शुद्ध चैतन्यघन को परमभाव कहकर, उसे परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय का विषय कहा है। नय का भेद होने पर भी इसे पक्षातिक्रान्त भी कहा जा सकता है।
आचार्य जयसेन, इसी परमभाव को शुद्धद्रव्यार्थिकनय का विषय