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द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद
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सम्बन्धी सात भंगों की चर्चा की जाती है, जिसमें दूसरा भंग अथवा धर्म 'स्यात् नास्ति' इसी परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय का विषय बनता है। जिसप्रकार सप्तभंगी में प्रथम दो भंग, उक्त 'स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय' एवं 'परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय' पर आश्रित हैं, उसीप्रकार यद्यपि शेष पाँच भंगों को विषय बनानेवाले नयों के आधार पर भी द्रव्यार्थिकनय के भेद किये जा सकते हैं, तथापि यहाँ संक्षिप्त शैली में द्रव्य का स्वरूप अस्तित्व और नास्तित्वधर्म द्वारा ही स्पष्ट किया है, अतः मात्र इन दो धर्मों के ग्राहक नयों का ही उल्लेख किया है। शेष पाँच बोलों की चर्चा सप्तभंगी में की ही गई है।
वृहद्नयचक्र में द्रव्य के अस्तिस्वभाव और नास्तिस्वभाव को इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
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अस्तिस्वभावं द्रव्यं, सद्द्रव्यादिषु ग्राहकनयेन । तदपि च नास्तिस्वभावं, परद्रव्यादिग्राहकेण ।। अर्थात् स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य, अस्तिस्वभाववाला है तथा परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय से नास्तिस्वभाववाला है।
ये सत्-असत्, भाव-अभाव या अस्ति-नास्ति प्रत्येक द्रव्य के स्वभाव, धर्म या शक्तियाँ हैं । यद्यपि इन्हें गुण न कहकर धर्म या स्वभाव कहने की परम्परा है, तथापि सामान्य गुणों में सबसे पहले अस्तित्व गुण की ही चर्चा आती है। गहराई से विचार किया जाए तो छह सामान्य गुण, वस्तु के धर्म या स्वभाव हैं तथा इन रूपों में पदार्थ का होना, यही उनका परिणमन है - ऐसा प्रतीत होता है। ज्ञान दर्शनादि या रूपरसादि विशेष गुणों के समान इनमें विविध उत्पाद-व्ययरूप अवस्थाएँ ख्याल में नहीं आतीं। चूँकि सामान्य गुणों में स्वभाव-विभाव अथवा शुद्ध - अशुद्धरूप परिणमन नहीं होता यही कारण है कि इनको विषय बनानेवाले स्वद्रव्यादिग्राहक या परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनयों के शुद्ध
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