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________________ 252 नय-रहस्य परकाल और परभाव की अपेक्षा असत् द्रव्य (नास्तित्व) को ग्रहण करता है, वह परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है। यद्यपि इस नय का नाम पर-द्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय कहा गया है, जिससे ऐसा लग सकता है कि यह नय, स्व से भिन्न परद्रव्यों के अस्तित्व को बतानेवाला है, किन्तु इसकी परिभाषा से स्पष्ट है कि यह परद्रव्यों को नहीं, अपितु स्वद्रव्य में त्रिकाल विद्यमान अस्तित्व धर्म के समान परद्रव्यों के नास्तित्वरूप त्रिकाल विद्यमान धर्म का ज्ञान कराता है, पर की अपेक्षा तो मात्र इसे समझाने के लिए कही है; अतः इसे परद्रव्यादि की अपेक्षा असत्ताग्राहक द्रव्यार्थिकनय भी कहा जा सकता है। ___जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त में ही यह साहस है कि वह एक ही वस्तु को सत् और असत्रूप घोषित करता है। अपेक्षाएँ भिन्नभिन्न होने से ये परस्पर विरोधी धर्म, वस्तु में अविरोधरूप से एक साथ रहते हैं। आचार्य समन्तभद्र, इन विरोधी धर्मों की अपेक्षाएँ स्पष्ट करते हुए इन्हें स्वीकार न करनेवालों को सर्वथा एकान्तवादी घोषित करते हुए आप्तमीमांसा में लिखते हैं - सदेव सर्वं को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात्। असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । अर्थात् सर्व वस्तुओं को स्वरूप-चतुष्टय की अपेक्षा 'सत्' कौन स्वीकार नहीं करेगा तथा विपरीत में पर-चतुष्टय की अपेक्षा उसे ही 'असत्' कौन स्वीकार नहीं करेगा। यदि ऐसा नहीं माना जाता तो वस्तु-व्यवस्था कुछ भी नहीं बन सकती है। इसी सत्-असत् धर्म को ही अस्ति-नास्ति धर्म कहकर, अस्तिनास्ति को धर्म-युगल कहा जाता है तथा सप्तभंगी में इस धर्म-युगल
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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