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द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद
__251 यही कारण है कि प्रवचनसार, गाथा 80 की टीका में पर्यायों को अन्वय के व्यतिरेक कहकर, उनका अन्वय करने की बात कही गई है। अन्वय को दो तरह से व्याख्यायित किया जाता है - तिर्यक्सामान्य एवं ऊर्ध्वतासामान्य। तिर्यक्सामान्य, जहाँ गुणों एवं प्रदेशों के अन्वय स्वरूप है, वहीं ऊर्ध्वतासामान्य, पर्यायों के अन्वय स्वरूप है।
__8. स्व-द्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय - जो नय, स्वद्रव्यस्वक्षेत्र-स्वकाल और स्वभाव में सत् द्रव्य (अस्तित्व) को ग्रहण करता है, वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है। - आचार्य समन्तभद्र ने स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ को सत् कहकर इसी नय का प्रयोग किया है। प्रत्येक पदार्थ, अपने स्व-चतुष्टय में ही विद्यमान रहता है, उसी में उसकी सत्ता है, अस्तित्व है, वही उसका स्वरूप है।
स्व-चतुष्टय में विद्यमान सत्ता की मुख्यता से ही सत् द्रव्यलक्षणम् कहकर इस नय का प्रयोग किया गया है। सप्त भंग में प्रथम भंग स्याद् अस्तित्व या स्याद् अस्ति धर्म आदि के रूप में भी यह 'सत्' धर्म ही कहा जाता है।
ध्यान रहे, यहाँ पदार्थ के अस्तित्वरूप 'सत्' धर्म की बात है, धर्म के दशलक्षणों में समागत उत्तम सत्य धर्म की नहीं। यह बात अवश्य है कि स्व-चतुष्टयरूप धर्म, वस्तु के स्वभावरूप पारिणामिकभाव हैं और उत्तम सत्य धर्म इसी स्वरूप-सत् की अनुभूति लक्षण उपशम, क्षयोपशम या क्षायिकभाव हैं।
स्वरूप-चतुष्टय में समागत द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की विस्तृत चर्चा, द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय, अध्याय 12 में की गई है। .... 9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय - जो नय परद्रव्य, परक्षेत्र,