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नय - रहस्य
हो, वह उसी का कहा जाता है; पीलेपन में यदि सोना व्याप्त हो तो वह सोने का गुण कहा जाएगा और यदि पीतल व्याप्त होगा तो वह पीतल का गुण कहा जाएगा।
अनन्त स्वभावों में द्रव्य की यह व्यापकता ही अन्वय कहलाती है। यह अन्वयपना द्रव्य का ही स्वरूप है; अतः द्रव्य को उसके अन्वय स्वरूप में देखना ही अन्वय द्रव्यार्थिकनय है।
आत्मा को ज्ञानानन्दस्वभावी कहना भी अन्वय द्रव्यार्थिकनय का प्रयोग कहा जा सकता है, क्योंकि इस कथन में मात्र ज्ञान और आनन्द स्वभाव की मुख्यता नहीं है; अपितु ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त स्वभावों में व्याप्त आत्मा को ही ज्ञान और आनन्द की सापेक्षता से बताया जा रहा है।
इसप्रकार अनन्त स्वभावों में विद्यमान अखण्ड अभेद वस्तु को उसके किसी एक या एकाधिक स्वभावों के द्वारा जाननेवाला नय अन्वय द्रव्यार्थिकनय है, क्योंकि अनन्त स्वभावों का कथन असम्भव होने से उसके एकाधिक स्वभावों के कथन द्वारा अनन्त स्वभावों में व्याप्त आत्मा को ग्रहण करना इस नय का काम है।
श्रुतभवनदीपक नयचक्र, द्वितीय अध्याय, श्लोक 9, पृष्ठ 44 पर इस नय के अन्तर्गत स्वभावों के स्थान पर पर्यायों (व्यतिरेक) में अन्वय करने का निर्देश किया है। वे लिखते हैं
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यः पर्यायादिवान् द्रव्यं ब्रूते त्वन्वयरूपतः । द्रव्यार्थिकः सोऽन्वयाख्यः प्रोच्यते नयवेदिभिः ॥19॥
अर्थात् जो नय, पर्याय आदि का अन्वय देखकर, उन्हें द्रव्य कहता है; उसे नयों के वेत्ताओं के द्वारा अन्वय द्रव्यार्थिकनय कहा गया है।