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________________ 249 द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद मुख्य नहीं किया जा रहा है। यहाँ तो उक्त तीन विशेषताओं वाले द्रव्य को मुख्य किया जा रहा है। जैसे, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो पर्यायार्थिकनय के विषय हैं, परन्तु जब मुनिराज की बात करें तो उनका आत्मा, रत्नत्रय से विभूषित देखा जाता है और यहाँ रत्नत्रय-पर्याय नहीं, अपितु रत्नत्रययुक्त आत्मा को मुख्य किया जाता है। सुन्दर आभूषणों की चर्चा करना अलग बात है और आभूषण पहनी हुई महिला की सुन्दरता की चर्चा करना अलग बात है। इसीप्रकार मात्र पर्यायों की चर्चा करना अलग बात है और पर्याय-सापेक्ष या पर्यायनिरपेक्ष, द्रव्य की चर्चा करना अलग बात है। द्रव्यस्वभाव को और अधिक गहराई से स्पष्ट करने हेतु उक्त छह नयों के अतिरिक्त चार नय और कहे गए हैं, जो इसप्रकार हैं - 7. अन्वय द्रव्यार्थिकनय - जो नय, समस्त स्वभावों में यह द्रव्य है - इसप्रकार अन्वयरूप से द्रव्य की स्थापना-करता है, वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है। श्री प्रवचनसार, गाथा 80 की टीका में अर्हन्त भगवान को द्रव्यगुण-पर्याय सहित जानने के प्रसंग में द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप अत्यन्त संक्षेप में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अन्वय सो द्रव्य है, अन्वय के विशेषण, गुण हैं और अन्वय के व्यतिरेक, पर्यायें हैं। वहाँ सफेद मोतियों के हार में व्याप्त धागे के उदाहरण से अन्वयस्वरूप द्रव्यांश का स्वरूप समझाया गया है। आत्मा में अनन्त स्वभाव हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि अनन्त गुण, जीवत्व, चिति आदि अनन्त शक्तियाँ और अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनन्त धर्म - ये सभी आत्मा के स्वभाव अर्थात् स्वयं के भाव हैं। इन सभी स्वभावों में आत्मा ही व्याप्त है, विद्यमान है, व्यापक है; अन्यथा ये आत्मा के स्वभाव कैसे कहे जा सकेंगे? जिसमें जो व्याप्त
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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