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नय-रहस्य धर्म-धर्मी आदि के भेदसहित देखनेवाला ज्ञान, भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है। ___ आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्रवाला कहना या उपयोग लक्षणवाला कहना - ये सभी प्रयोग, भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के हैं। समयसार, गाथा 7 में आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का भेद कहना व्यवहार कहा गया है। अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्धद्रव्यार्थिकनय के सामने व्यवहार हो जाता है, क्योंकि उसके विषय का आलम्बन छोड़ना है।
__ आत्मा को कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेदकल्पनासापेक्ष देखना, अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहकर, इन्हें ज्ञान में गौण करके इनसे दृष्टि हटाकर, कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेद-कल्पना - इन तीनों से निरपेक्ष द्रव्य को मुख्य करके इसी में अहंपना स्थापित करना सम्यग्दर्शन है।
इसप्रकार ये छहों नय, अस्ति और नास्ति से दृष्टि के विषय को स्पष्ट करते हैं अर्थात् कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेदकल्पना दृष्टि का विषय नहीं है अथवा ये तीनों दृष्टि के विषय में नहीं हैं, वह तो चार भावों से रहित परमपारिणामिकभावस्वरूप, ध्रुव और अभेद है।
जिनागम में दृष्टि के विषय को स्पष्ट करने के लिए उसके कारणपरमात्मा, कारणसमयसार, शुद्ध चिद्रूप, परमानन्दस्वरूप, अभेद, नित्य, एक, अखण्ड, सामान्य, ज्ञायकभाव आदि अनेक विशेषण कहे गए हैं। वस्तुतः अनुभूति में इन विशेषणों सम्बन्धी विकल्प भी नहीं होते, मात्र चिन्मात्रस्वरूप का वेदन होता है। . प्रश्न - कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेदकल्पना, वस्तु के पर्यायांश में होते हैं, द्रव्यांश में नहीं; अतः इन्हें विषय बनानेवाला नय पर्यायार्थिक होना चाहिए, उसे द्रव्यार्थिकनय के भेदों में शामिल क्यों किया गया है? .
उत्तर – यद्यपि उक्त विशेषण पर्यायगत हैं, तथापि यहाँ पर्याय को