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नय-रहस्य है, परन्तु पर का लक्ष्य करने मात्र से वह पराधीन नहीं हो जाती, उसकी स्वतन्त्रता नष्ट नहीं हो जाती, क्योंकि उसने अपनी तत्समय की योग्यता से पर का लक्ष्य किया है, पर के कारण नहीं। इसीप्रकार वह स्वद्रव्य की श्रद्धा-ज्ञान-लीनता भी कब करे, कितनी करे? - इन सबमें भी वह स्वतन्त्र है। परिणामी द्रव्य का परिणमन होने पर भी वह त्रिकाली अपरिणामी ध्रुव, स्वभाव से निरपेक्ष है।
द्रव्य-स्वभाव में अहं करना, उस पर्याय का स्वभाव है। अहं और अहं का विषय, कथंचित् भिन्न होने पर भी अहं की अनुभूति में द्रव्य और पर्याय-सम्बन्धी भेद का या उसमें समर्पण का विकल्प ही नहीं होता, अतः पराधीनता का प्रश्न ही नहीं उठता; किन्तु जब अनुभूति की प्रक्रिया बताई जाएगी, तब भेद-कथन करते हुए यही कहा जाएगा कि पर्याय, द्रव्य का आलम्बन करती है। जबकि आलम्बन के काल में भी पर्याय, पर्याय रहती है और द्रव्य, द्रव्य रहता है। यही उसकी स्वतन्त्रता और निरपेक्षता है। द्रव्य में लीनता, पर्याय का स्वरूप है, पराधीनता नहीं। शुद्धपर्याय, अपने में ही अपना वैभव देखती है तो वह वैभव, उसके स्वामी द्रव्य का ही है, किसी और का नहीं। वह स्वयं तो वृत्ति है, अंश है, उसका स्वरूप ही द्रव्य में लीन होकर द्रव्य को व्यक्त करना है। इस सम्बन्ध में आदरणीय बाबू जुगलकिशोरजी 'युगल' का पुस्तकाकार लेख 'पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी और उनका जीवन-दर्शन' अथवा 'सम्यग्दर्शन और उसका विषय' अवश्य पठनीय है। 5. उत्पाद-व्ययसापेक्ष सत्ताग्राहक अशुद्धद्रव्यार्थिकनय
जो नय, उत्पाद-व्यय के साथ मिली हुई सत्ता को ग्रहण करता है, द्रव्य को एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहता है, वह उत्पाद-व्ययसापेक्ष सत्ताग्राहक अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है।