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________________ 245 द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद इसप्रकार अशुद्धद्रव्यार्थिकनय का यथार्थ निर्णय भी आत्मानुभूति में सहायक होता है। यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि आत्मा, वर्तमान में अशुद्ध है - यह कथन, मात्र पर्यायदृष्टि अथवा अशुद्धद्रव्यार्थिकनय से ही सम्भव है। क्या शुद्धद्रव्यार्थिकनय का विषयभूत त्रिकाली द्रव्य, वर्तमान में विद्यमान नहीं है? यदि नहीं हो तो वह त्रिकाल अखण्डित कैसे रहेगा? अतः उत्पादरूप वर्तमान, ध्रुवरूप वर्तमान में अहं करे तो ही आत्मानुभूति का पुरुषार्थ सहज सम्पन्न हो जाता है। इसी ध्रुवरूप वर्तमान को कारणशुद्धपर्याय भी कहते हैं। प्रश्न - पर्याय तो स्वतन्त्र सत् है। अपनी योग्यता से अपने षट् कारक से स्वयं शुद्धरूप परिणमित होती है; अतः उसे द्रव्य का आश्रय करना चाहिए या द्रव्य में अहंपना करना चाहिए - ऐसा कहकर, उसे द्रव्य के आधीन/पराधीन क्यों बनाया जाता है? वह अपने में ही अपना वैभव देखकर शुद्ध हो जाएगी? . उत्तर - द्रव्य और पर्याय, सर्वथा भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं। पर्याय, द्रव्य की ही वृत्ति है, उसी का परिणमन है; अतः द्रव्य ही उसका स्व है, स्वामी है, अन्वय स्वरूप होने से उसमें ही व्याप्त है; इसलिए द्रव्य के आलम्बन को परालम्बन नहीं, अपितु पर्याय द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का ही आलम्बन जानना चाहिए। __ पर्याय को स्वतन्त्र सत् कहने का आशय यह है कि वह परपदार्थों के कारण उत्पन्न नहीं होती। त्रिकाली उपादान भी उसका सामान्य कारण है, समर्थ कारण नहीं। समर्थ कारण तो उसकी तत्समय की योग्यता ही है। पर्याय, पर-पदार्थों का लक्ष्य करके विकाररूप परिणमन करती
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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