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________________ 244 नय-रहस्य को कर्मोपाधियों से भिन्न देखना या मिला हुआ देखना - यही उसकी शुद्धता और अशुद्धता का आधार है। यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा शुद्ध है, लेकिन पर्यायदृष्टि से वर्तमान में अशुद्ध है - मात्र इन विकल्पों से अथवा ऐसे निर्णय से आत्मानुभूति का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जो पर्याय, द्रव्य को शुद्ध देखती है अथवा शुद्धद्रव्य में अहं करती है, वह स्वयं अशुद्ध कैसे रह सकती है? पर्याय का स्वर ऐसा नहीं होता कि द्रव्य शुद्ध है, अपितु वह द्रव्य में अहंपना स्थापित करके अपने को शुद्ध अनुभव करती है, उसके स्वर हो जाते हैं कि मैं शुद्ध हूँ। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी अशुद्धता अर्थात् मिथ्यात्व स्वयं विलीन हो जाता है और श्रद्धा की शुद्धता अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त होता है। एक दरिद्र कन्या, यदि सम्पन्न व्यक्ति का वरण करे तो उसकी अनुभूति ऐसी नहीं होती कि मैं तो दरिद्र हूँ और मेरे पति सेठ हैं; अपितु वह अपने पति में सर्वस्व समर्पण करती हुई स्वयं को सम्पन्न अनुभव करती है, जिसमें उसकी चिर-दरिद्रता भी विलीन हो जाती है। उपर्युक्त अनुभूति होने पर जो सम्यक् प्रमाणज्ञान उत्पन्न होता है, उसमें पर्यायगत रागादिक अवशेषों का भी यथार्थ ज्ञान होता है; तब द्रव्य और पर्याय, दोनों का जानना यथार्थ होता है। प्रश्न - तो क्या अनुभूति से पहले द्रव्य शुद्ध है और पर्याय अशुद्ध है - ऐसा निर्णय करना मिथ्या है? उत्तर - यद्यपि अनुभूति से पहले तो सभी ज्ञान मिथ्या ही हैं तथापि आगमाश्रित होने से कोई भी निर्णय मिथ्या नहीं है, इस आगमाश्रित निर्णय को आत्माश्रित निर्णय में उपर्युक्त आत्मानुभूति की प्रक्रिया से ही बदला जा सकता है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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