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द्रव्यार्थिकनय के भेद-प्रभेद सांख्यादि मतों का निराकरण हो जाता है। इस नय से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि औदयिक आदि चारों भावों में कर्मों का निमित्त होने पर भी ये आत्मा के ही परिणमन हैं, आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं; अतः पर्यायों की सापेक्षता से देखनेवाले नय को अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहा गया है।
प्रश्न - द्रव्य तो त्रिकाल शुद्ध रहता है, वह कभी अशुद्ध नहीं होता, मात्र पर्याय अशुद्ध होती है तो अशुद्धद्रव्यार्थिकनय मानना कैसे सम्भव है?
उत्तर - द्रव्य और पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हैं, अपितु एक ही वस्तु के दो अंश हैं। पर्याय से दृष्टि हटाकर द्रव्य में लगाने के प्रयोजन से इनमें भिन्नता की भाषा बोली जाती है कि द्रव्य शुद्ध/नित्य है और पर्याय अशुद्ध/अनित्य है। वास्तव में स्याद्वाद शैली में ऐसा कहना अधिक उपयुक्त है कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा शुद्ध/नित्य है और पर्यायदृष्टि से आत्मा अशुद्ध/अनित्य है, क्योंकि द्रव्य और पर्याय एक ही वस्तु के दो विरुद्ध अंश हैं, जो वस्तु में अविरोधरूप से रहते हैं।
जिनागम में पर्यायदृष्टि से ही आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - ऐसे तीन भेद कहे हैं। समयसार जैसे शुद्धनय प्रधान ग्रन्थराज में भी आत्मा को अज्ञानी, मूढ़, मिथ्यादृष्टि, क्रोधी, मोही अथवा ज्ञानी आदि विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। प्रवचनसार, गाथा 8 में शुभोपयोग, अशुभोपयोग अथवा शुद्धोपयोग में परिणमित आत्मा को ही शुभ, अशुभ या शुद्ध कहा गया है - ये सब कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के ही प्रयोग हैं। .
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रागादिभाव तो पर्यायगत अशुद्धता है। पर्यायार्थिकनय के भेदों में भी कर्मोपाधि से रहित और सहित की अपेक्षा शुद्ध और अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहे जाएंगे। यहाँ तो आत्मा