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________________ 242 3. भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय जो नय, गुण-गुणी आदि चतुष्करूप ( गुण-गुणी, स्वभावस्वभाववान्, पर्याय-पर्यायवान्, धर्म-धर्मी) अर्थ में भेद नहीं करता, वह भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। भेद और अभेद - ये दोनों प्रत्येक वस्तु के धर्म हैं; अतः ये आत्मा के भी धर्म हैं। यदि भेद की मुख्यता से आत्मा को देखें तो वह गुण-गुणी आदि भेदरूप दिखाई देता है और अभेद को मुख्य करें तो वह समस्त प्रकार के भेदों से रहित एक चिन्मात्र भासित होता है। आत्मा की अनुभूति के लिए भेद का विकल्प तोड़कर, जिस अभेदस्वरूप के अवलम्बन की प्रेरणा दी जाती है, वह इसी नय का विषय है। यहाँ मात्र अभेद धर्म के अवलम्बन की बात नहीं है, अपितु गुण - पर्यायों के भेदों से रहित अभेदधर्मस्वरूप धर्मी अर्थात् अभेद द्रव्य के अवलम्बन की बात है। नय - रहस्य दृष्टि के विषय में पर्याय के सम्बन्ध में यह नय कहता है कि भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषय का अवलम्बन करने से द्रव्य, सर्वथा पर्यायरहित नहीं हो जाता, अपितु पर्याय, अभेद द्रव्य में अहं करके अपने को कर्मोपाधि, उत्पाद-व्यय और भेदकल्पना से रहित अनुभव करती हुई द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु को सार्थकता प्रदान करती है। 4. कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय जो नय, सब रागादिभावों को जीव या जीव के कहता है, वह कर्मापाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है । कर्मोपाधिनिरपेक्ष यदि शुद्धद्रव्यार्थिकनय, आत्मा को कर्मोपाधि से रहित देखता है तो कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय, उसे कर्मोपाधि सहित देखता है। इस नय के प्रयोग से आत्मा को सर्वथा शुद्ध माननेवाले
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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