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द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय
235 __इस सन्दर्भ में कुछ आचार्यों के निम्नलिखित वचन ध्यान देने योग्य है -
द्रव्य के सामान्य और विशेष, दो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण - ये सब एकार्थक शब्द हैं। सामान्य को विषय करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है और विशेष को विषय करनेवाला पर्यायार्थिकनय है। दोनों के समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य है, अतः गुण जब द्रव्य का ही सामान्य रूप है, तब उसके ग्रहण के लिए पृथक् से गुणार्थिकनय की कोई आवश्यकता नहीं है।'
यहाँ गुण से सहभावी पर्याय ही विवक्षित है, अतः गुण को जाननेवाला तीसरा गुणार्थिकनय नहीं है।'
. सन्मति तर्क में भी गुणों को पर्याय के अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया है, अतः गुणों को विभिन्न अपेक्षाओं से द्रव्य या पर्याय में ही गर्भित करके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक - ये दो ही मूलनय कहें गए हैं। इस सन्दर्भ में विशेष आगम-प्रमाण और उनका स्पष्टीकरण, परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 199-202 तक अवश्य पढ़ें।
प्रश्न - प्रमाण और नयों के बिना तत्त्व-निर्णय नहीं होता, तत्त्वनिर्णय के बिना सम्यक्त्व नहीं होता और सम्यक्त्व के बिना सच्चे प्रमाण-नय नहीं होते तो फिर सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व सच्चा तत्त्व-निर्णय कैसे सम्भव है?
उत्तर - यह बात सत्य है कि सम्यग्दर्शन के बिना सच्चा तत्त्वनिर्णय नहीं होता, परन्तु उस पर स्वानुभूति की मुहर न लगी होने से ही
1. आचार्य अकलंकदेव, तत्त्वार्थराजवार्तिक, अध्याय 5, सूत्र 38. 2. आचार्य विद्यानन्दि, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, नयविवरण, श्लोक 22