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नय - रहस्य
वस्तुतः आचार्यों ने वस्तु में अविरोधरूप से रहनेवाले परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मों का समन्वय, स्याद्वाद (अपेक्षा) के द्वारा किया है, जिसे लोगों ने सभी सम्प्रदायों या मिथ्या मान्यताओं का समन्वय समझ लिया है। आचार्य समन्तभद्र ने दो विपरीत मान्यताओं को सत्य मानने को उभयैकान्त कहकर, इस समन्वयाभास को चुनौती देते हुए स्याद्वाद के द्वारा अस्ति नास्ति आदि परस्पर विरुद्ध दो धर्मों में समन्वय किया है।
आप्तमीमांसा में समागत वह कारिका इसप्रकार है विरोधान्नोभयैकान्तं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्तिः, नावाच्यमिति युज्यते ।।13।। द्वय एकान्तों में विरोध है, स्याद्वाद - विद्वेषी के । यदि सर्वथा अवाच्य कहें तो, वस्तु- वाच्य इस वाणी से ।।1311 इसप्रकार यह स्पष्ट है कि स्याद्वाद का प्रयोग, सावधानी से करते हुए 'एवकार' के विष को तो दूर करना चाहिए, परन्तु 'एवकार' का सर्वथा निषेध नहीं करना चाहिए, क्योंकि 'एवकार' नयरूप होने से वस्तु - स्वरूप के निर्णय में अनिवार्य है, सम्यक् - एकान्तरूपी अमृत से वस्तु-स्वरूप ही मिथ्या - एकान्तरूपी विष नष्ट किया जा सकता है।
प्रश्न- द्रव्य और पर्याय के समान, गुण भी वस्तु के महत्त्वपूर्ण अंश हैं तो उन्हें जाननेवाला गुणार्थिकनय अलग से क्यों नहीं कहा ? उत्तर भेद-विवक्षा से गुणों को सहभावी पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है, अतः वे पर्यायार्थिक नय के विषय हो जाते हैं और अभेद-विवक्षा से गुण, द्रव्य के ही सामान्य स्वरूप हैं, अतः वे द्रव्यार्थिकनय के विषय हो जाएँगे; इसलिए अलग से गुणार्थिकनय को कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
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