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द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय दो एकान्त वाचक शब्दों का प्रयोग एकसाथ किया जाए तो मिथ्या एकान्त हो जाता है; अतः सर्वथा एकान्त का प्रयोग अनिष्ट है तो कथंचित् एकान्त सहज ही इष्ट हो गया। श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा भी है -
__ अनेकान्त भी सम्यक्-एकान्तस्वरूप अपने निजपद की प्राप्ति के अलावा, अन्य किसी रीति से उपकारी नहीं है।
आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की सातवीं कारिका में सर्वथा एकान्तवादियों को जिनमतरूपी अमृत से बाहर घोषित किया है तथा 15वीं कारिका में सदेव सर्वं को नेच्छेत् अर्थात् प्रत्येक पदार्थ सत् ही है - ऐसा कहकर सम्यक् एकान्त का प्रतिपादन किया है।
प्रमाण, सम्यक्-अनेकान्तरूप है तथा प्रमाणाभास मिथ्याअनेकान्तरूप है। इसीप्रकार नय, सम्यक्-एकान्तरूप हैं और नयाभास मिथ्या-एकान्तरूप हैं।
हम ऐसा भी कह सकते हैं कि यद्यपि ये तीनों शब्द जहरीले हैं, तथापि स्याद्वाद अर्थात् अपेक्षा के महामन्त्र से इनका जहर उतर जाता है।
प्रवचनसार, गाथा 115 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र देव लिखते हैं -
स्यात्काररूपी अमोघ मन्त्र, एवकार (सर्वथा, एकान्त, ही) में रहनेवाले विरोध-विष के मोह को दूर करता है।
यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि आजकल स्याद्वाद का प्रयोग, जगत् में प्रचलित सभी धर्मों का समन्वय करने और सत्य बताने के लिए किया जाता है। जरा विचार कीजिए कि क्या अनेक असत्यों को मिलाकर एक सत्य बन सकता है? यदि नहीं, तो फिर जो वस्तुस्वरूप के विरुद्ध असत्य प्रतिपादन करते हैं, उनका समन्वय करके सत्य प्रतिपादन कैसे हो सकता है?