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द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय
. अन्य जीवों की पर्याय को क्षणिक मानने से उनके प्रति हमें रागद्वेष नहीं होता तथा समताभाव उत्पन्न होता है तथा उनका द्रव्यस्वभाव तो हमारे जैसा ही है; अतः उसे जानने से भी सहज समता उत्पन्न होती है।
. इसप्रकार दोनों नयों के विषय का ज्ञान, हमारे आत्महित में कार्यकारी हैं।
द्रव्य और पर्याय, दोनों को यथावत् जानकर, द्रव्य-स्वभाव का आश्रय लेना - यही प्रमाणज्ञान के फलस्वरूप प्रगट होनेवाला, सम्यक् एकान्त है और यही श्रेयस्कर है।
सर्वथा शब्द का यथार्थ आशय - प्रवचनसार, गाथा 114 की टीका में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक चक्षु को क्रमशः सर्वथा बन्द करने की बात कही गई है। यहाँ सर्वथा बन्द करने से आशय दूसरी आँख को अच्छी तरह बन्द करने से ही है, फोड़,लेने से नहीं। जिस आँख से देखना है, उसे खुली रखकर, उतने समय के लिए मात्र द्रव्यांश/पर्यायांश को देखने के लिए दूसरी आँख बन्द कर लेने की बात है।
लोक में भी बन्दूक से निशाना साधते समय या कैमरे से फोटो खींचते समय अथवा हीरे की परख करते समय मात्र एक ही आँख का प्रयोग करते हुए, दूसरी आँख को बन्द रखा जाता है।
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के लिए भी क्रमशः सर्व-सर्वत्र-सर्वदासर्वथा शब्दों का प्रयोग किया जाता है; अतः ‘सर्वथा' शब्द में द्रव्य, क्षेत्र और काल को गौण करके 'भाव' को मुख्य किया है, इसलिए यहाँ सर्वथा शब्द का अर्थ भी कथंचित् हो जाता है। ‘आत्मा, द्रव्य की अपेक्षा सर्वथा नित्य है' - इस वाक्य के प्रयोग में द्रव्य की अपेक्षा नित्य है - यह अभिप्राय हो तो यहाँ 'सर्वथा' शब्द का आशय ‘कथंचित्' अर्थात् आत्मा कथंचित् नित्य है - यह समझना चाहिए।