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द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय
229 से तो मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र दूर होंगे नहीं तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र तो अभी प्रगट हुए नहीं, अतः उन्हें प्रगट करने का एकमात्र उपाय, परम-पारिणामिकभावस्वरूप द्रव्यांश/अंशी का आलम्बन ही है, क्योंकि उसमें अपनापन ही सम्यग्दर्शन है, उसे जानना ही सम्यग्ज्ञान है और उसमें लीनता ही सम्यक्चारित्र है।
यदि ऐसा माने कि काम तो पर्याय में ही होना है तथा कार्य स्वयं भी पर्याय ही है और पर्याय को, पर्याय से, पर्याय के लिए ही करना है; जबकि द्रव्य तो अव्यक्त है, निष्क्रिय है; अतः उसे जानने की जरूरत ही क्या है? तो पर्यायपक्ष का मिथ्या-एकान्त हो जाएगा और पर्याय को उसका आलम्बन भी नहीं मिलेगा।
इसीप्रकार यदि ऐसा माना जाए कि पर्याय-बुद्धि तो मिथ्यात्व है, वह तो क्षणिक और विकारी है, आश्रय तो द्रव्य का ही करना है; अतः पर्याय को जानना ही क्यों? तो द्रव्यपक्ष का मिथ्या-एकान्त होने से भी सम्यग्दर्शन नहीं होगा। द्रव्य को ही जानें, पर्याय को नहीं - ऐसा बोलनेवाली भी तो पर्याय ही है, अतः उक्त कथन स्व-वचन बाधित है।
दोनों नयों को जानने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी कहते हैं -
जीव का स्वरूप, दो नयों से बराबर ज्ञात होता है। अकेले द्रव्यार्थिकनय या अकेले पर्यायार्थिकनय से ज्ञात नहीं होता; इसलिए दोनों नयों का उपदेश ग्रहण करने योग्य है।
एकान्त द्रव्य को ही स्वीकार करे और पर्याय को स्वीकार न करे तो पर्याय के बिना द्रव्य का स्वीकार, किसने किया और किसमें किया? और मात्र पर्याय ही को स्वीकार करे, द्रव्य को स्वीकार न करे तो पर्याय कहाँ दृष्टि लगाकर, एकाग्र होगी? इसलिए दोनों नयों