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नय - रहस्य
उत्तर उक्त आशंका ठीक नहीं है; क्योंकि जिस अंशी या धर्मी में उसके सब अंश या धर्म गौण हो जाते हैं, उस अंशी में मुख्यरूप से द्रव्यार्थिकनय की प्रवृत्ति होती है अर्थात् ऐसा अंशी, द्रव्यार्थिकनय का विषय है; अतः उसका ज्ञान द्रव्यार्थिकनय है और धर्म तथा धर्मी के समूहरूप वस्तु में धर्मों और धर्मी, दोनों को प्रधानरूप से जाननेवाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।
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वस्तु के द्रव्यांश को अंशी कहना अनुचित भी नहीं लगता, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत द्रव्य, सामान्य अभेद तथा नित्य भी है अर्थात् द्रव्य, अपने अनन्त गुणों और त्रिकालवर्ती पर्यायों में व्याप्त रहता है; अतः द्रव्य की अंशी, सामान्य या धर्मी और गुण - पर्यायों की अंश, विशेष तथा धर्म संज्ञा यथायोग्य अपेक्षा से उचित ही है। बहुप्रदेशी द्रव्यों के प्रदेशों को भी उसके अंश ही समझना चाहिए।
गुण- पर्यायों में व्याप्त द्रव्य को मुख्य करके जाननेवाला ज्ञान, द्रव्यार्थिकनय है तथा गुण-पर्यायों के भेद को मुख्य करके जाननेवाला ज्ञान, पर्यायार्थिक नय हैं।
यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत अंशी, प्रमाण की अपेक्षा तो अंश ही है, सम्पूर्ण वस्तु नहीं। अंशी और अंशरूप सम्पूर्ण वस्तु को प्रधानरूप से या बिना मुख्य-गौण किये जानना, प्रमाणं ज्ञान है।
प्रश्न कहीं द्रव्यांश अथवा अंशी को द्रव्य कहते हैं, कहीं द्रव्य-पर्यायात्मक सम्पूर्ण वस्तु को द्रव्य कहते हैं
इसका क्या
कारण है?
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उत्तर - भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से 'द्रव्य' शब्द के भिन्न-भिन्न प्रयोग किये जाते हैं । 'द्रव्य' शब्द के अनेक प्रकार के प्रयोग पाये जाते हैं। विस्तार से संक्षेप की ओर आते हुए क्रम से