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द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय
अनन्त प्रदेशी अखण्ड आकाश द्रव्य क्षेत्र में सबसे बड़ा है वह अचेतन है, अतः उससे उसमें पूज्यत्व नहीं है, फिर भी जिस स्थान पर वीतरागी सन्त विचरते हैं, सिद्ध पद की साधना हेतु अपने ज्ञायकभाव की आराधना करते हैं, वह स्थान भी हमारे लिए तीर्थ हो जाता है, पूज्य हो जाता है।
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काल भी निरन्तर प्रवाहशील जड़ द्रव्य है। दिन, महीना, वर्ष आदि काल का ही व्यवहार है, अतः उसमें पूज्यता कैसे हो सकती है ? परन्तु हमारे तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथियों को भी हम धन्य घड़ी, धन्य दिवस, आदि कहकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। उनके कल्याणक दिवस मनाते हैं। काल पर भाव का आरोप करके ही कहा जाता है
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धन्य घड़ी वह धन्य दिवस जब, मंगलमय मंगलाचरण हो । इसप्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य, क्षेत्र और काल तीनों भाव से ही महिमावन्त हैं, स्वयं से नहीं ।
ये
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वस्तु के द्रव्यांश के लिए अंशी शब्द का प्रयोग - यद्यपि प्रत्येक वस्तु, द्रव्य - पर्यायात्मक है; अतः द्रव्य और पर्याय ये दोनों सम्पूर्ण वस्तु के अंश हैं, तथापि तत्त्वार्थ - श्लोकवार्तिक के नय- विवरण प्रकरण, श्लोक 7-9 में द्रव्य को अंशी तथा पर्याय को अंश शब्द से उल्लिखित किया है। तत्त्वार्थ - श्लोकवार्तिक में इस विषय को प्रश्नोत्तर के रूप में इसप्रकार स्पष्ट किया है
प्रश्न जैसे अंशी (वस्तु) में प्रवृत्ति करनेवाले ज्ञान को प्रमाण माना जाता है, वैसे ही वस्तु के अंश में प्रवृत्ति करनेवाले अर्थात् जाननेवाले नय को प्रमाण क्यों नहीं माना जाता ? अतः नय, प्रमाणस्वरूप ही है?