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________________ 222 - ‘नय-रहस्य अनादि-अनन्त और असंख्य प्रदेशी है, अतः ज्ञायकभाव, द्रव्य-क्षेत्र-काल से सर्वथा भिन्न भी नहीं है, परन्तु द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के अपने-अपने जुदे-जुदे लक्षण भी हैं; अतः आत्मानुभूति में ज्ञायक भाव की ही मुख्यता है। समयसार के प्रथम कलश में भी चित्स्वभावाय भावाय कहकर चैतन्य-स्वभावमयी सत्ता को नमस्कार किया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ ही चैतन्य-स्वभावी भगवान आत्मा के प्रतिपादन और उसकी अनुभूति की प्रेरणा में ही समर्पित है। . __ आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी भी तत्त्व-निर्णय हेतु भावभासन की प्रेरणा देते हैं। पण्डित दौलतरामजी तो स्पष्ट कहते हैं - वर्णादि अरु रागादि तैं, निजभाव को न्यारा किया। इसप्रकार स्व-चतुष्टयरूप पदार्थ में भाव का विशेष महत्त्व समझना चाहिए। द्रव्य-क्षेत्र-काल का महत्त्व भी भाव से ही - हमारे जीवन में भी भाव का सर्वाधिक महत्त्व है। मात्र द्रव्य के आधार से कोई वस्तु पूज्य नहीं होती। द्रव्य की अपेक्षा तो सभी जीव एक जैसे हैं तो फिर कोई पूज्य और कोई पूजक कैसे हो सकता है? वीतराग-विज्ञानता पूज्य होने से पंच परमेष्ठी पूज्य हैं और हमारे परिणामों में उनके प्रति भक्तिभाव होने से हम पुजारी हैं। इसीप्रकार जिन-प्रतिमा और मन्दिर का फर्श दोनों पुद्गलद्रव्य हैं, परन्तु जिन-प्रतिमा में वीतरागभाव की स्थापना होने से हम उनके चरणों में सिर झुकाते हैं, जबकि फर्श पर पैर रखकर, खड़े होने में भी हमें संकोच नहीं होता। - 1. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 220
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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