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नय-रहस्य
अनेक विशेषणों को पर्याय' शब्द में गर्भित करके पर्यायार्थिकनय कहा गया है, अनित्यार्थिक आदि नहीं। - वस्तु-स्वरूप को और अधिक गहराई से समझने के लिए द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव का स्वरूप समझना भी अति आवश्यक है।
द्रव्यं = मूल पदार्थ जो क्षेत्र, काल और भाव का आधार है। क्षेत्र = द्रव्य का विस्तार अर्थात् चौड़ाई काल = द्रव्य का प्रवाह अर्थात् लम्बाई भाव = द्रव्य की शक्तियाँ, गुण या धर्म अर्थात् मोटाई
इसप्रकार लम्बाई, चौड़ाई और मोटाईस्वरूप घन-पिण्ड ही द्रव्य है। मिश्री एक पदार्थ है, उसकी डली का आकार, उसका क्षेत्र है, जितने समय तक वह मिश्री अवस्था है, वह उसका काल है तथा उस मिश्री की सफेदी, मिठास आदि, उसका भाव है।
इसीप्रकार प्रत्येक जीव, एक द्रव्य है, असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र है, अनादि-अनन्त उसका काल है तथा ज्ञान-दर्शन, अस्तित्व आदि अनन्त गुण उसके भाव हैं - ऐसे स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमय प्रत्येक जीव का अस्तित्व है।
स्वचतुष्टय में भाव का महत्त्व - यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक पदार्थ की दूसरे पदार्थों से भिन्नता, विशेष भाव (विशेष गुण) के आधार पर जानी जाती है। 'सत्' सामान्य लक्षण से प्रत्येक द्रव्य की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता तो समझी जा सकती है, परन्तु जड़-चेतन की भिन्नता नहीं जानी जा सकती। जीवद्रव्य धर्मद्रव्य
और अधर्मद्रव्य - इन तीनों के लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं। लोकालोकप्रमाण आकाश, अनन्त प्रदेशी है। पुद्गल स्कन्ध, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त प्रदेशी हैं। परमाणु और कालाणु, एकप्रदेशी हैं