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द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय
जो ज्ञान, द्रव्य-पर्याय दोनों अंशों को मुख्य-गौण किये बिना एक साथ जानता है, वह प्रमाणज्ञान है। परीक्षामुख सूत्र के चतुर्थ परिच्छेद, सूत्र 1 में भी कहा गया है - सामान्य-विशेषात्मा तदर्थो विषयः। उक्त नय और प्रमाण के कथनों को इस उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है -
सोने की अंगूठी में मात्र स्वर्ण को मुख्य करके जानना, द्रव्यार्थिकनय है और अंगूठी को मुख्य करके जानना, पर्यायार्थिकनय है तथा सोना और अंगूठी, दोनों को मुख्य-गौण किये बिना एक साथ जानना, प्रमाण है। __ इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को चैतन्यस्वरूप जीव की मुख्यता से जानना, द्रव्यार्थिकनय है, मनुष्यपर्याय के रूप में जानना, पर्यायार्थिकनय है तथा जीव और मनुष्य, दोनों को मुख्य-गौण किये बिना जानना, प्रमाण है। __ . आचार्य समन्तभद्र प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव के रूप में प्ररूपित करते हुए लिखते हैं -
सदैव सर्वं को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात्। ...
असदेव विपर्यासात्, न चेन्न व्यवतिष्ठते।। द्रव्य-क्षेत्र-निज काल भाव से सत्पदार्थ, नहिं माने कौन?
और असत् परद्रव्य आदि से नहिं माने, अव्यवस्थित भौन।।
अतः वस्तु के द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव - इन चार बिन्दुओं को प्रमाण, द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय से समझना चाहिए। जिसकी विस्तृत व्याख्या इसप्रकार है - द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव में प्रमाण और नयों का प्रयोग __सामान्य-विशेष आदि अनन्त धर्मयुगलमय वस्तु का अस्तित्व स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल भावमय है; अतः द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमय पदार्थ 1. प्रवचनसार, गाथा 114 की टीका