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यहाँ आत्मा कथंचित् चेतन है' - यह प्रयोग अजीब-सा लग रहा है। हाँ, 'आत्मा कथंचित् अचेतन है' - यह प्रयोग सम्यक् प्रतीत हो रहा है, क्योंकि हम किसी अपेक्षा से अर्थात् जड़ शरीर के संयोग के कारण आत्मा को अचेतन कह सकते हैं। लेकिन आत्मा को किसी अपेक्षा से अचेतन कहने के समान हम किसी अपेक्षा से चेतन कैसे कह सकते हैं? क्योंकि वह तो स्वभाव से ही चेतन है अर्थात् दोनों विवक्षाओं को हम समानता कैसे प्रदान कर सकते हैं?
इस सम्बन्ध में आचार्यदेव का निम्न वक्तव्य ध्यान देने योग्य है - "शंका - उपनय के अभाव में 'स्यात्' शब्द का अभाव क्यों है ?
समाधान - 'स्यात्' शब्द की प्रधानता होने से उपनय ही व्यवहार का जनक होता है; अतः उपनय के अभाव में 'स्यात्' शब्द का भी . अभाव सिद्ध है।
जब निश्चयनय से उपनय प्रलय को प्राप्त हो जाता है, तब केवल निश्चय ही प्रकाशित रहता है। यद्यपि निश्चयनय से अखण्डित एक वस्तु का सद्भाव है; तथापि उपनय से उपजनित अनेक व्यवहार से कवलित (ग्रसित) वस्तु भी शुद्ध ही है।
जिस प्रकार राहु-बिम्ब से आच्छादित होने पर भी सूर्य, अन्धकार का नाश करने वाला एवं प्रकाश स्वभाव वाला ही है।"
"शंका - यदि व्यवहार से कवलित वस्तु भी शुद्ध है तो व्यवहारनय की क्या आवश्यकता है ?
समाधान - व्यवहारनय की उपयोगिता, असत्कल्पना की निवृत्ति एवं सद्रत्नत्रय की सिद्धि के लिए है तथा सम्यक् रत्नत्रय की सिद्धि से परमार्थ की सिद्धि होती है। 2
"शंका - स्वभावसिद्ध परमार्थ की सिद्धि, व्यवहार से कैसे हो 1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 22 2. वही, पृष्ठ 23 नय-रहस्य
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