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" शंका - उपनय, व्यवहार का जनक किस प्रकार है ?
समाधान - सद्भूतव्यवहारनय, भेद का उत्पादक है; असद्भूतव्यवहारनय, उपचार का उत्पादक है तथा उपचरित - असद्भूतव्यवहारनय, उपचार में भी उपचार का उत्पादक है; अतः उपनय से उपजनित व्यवहारनय होता है । जो यह भेद व उपचार लक्षणवाला अर्थ या प्रयोजन है, वही अपरमार्थ है, क्योंकि अभेद व अनुपचार लक्षण वाले अर्थ या प्रयोजन का ही परमार्थत्व है; अतएव व्यवहारनय, अपरमार्थ का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ है । "
निश्चयनय तो उपनय से रहित है । यह अभेद व अनुपचाररूप लक्षण वाले अर्थ को निश्चित करता है; अतः यह निश्चयनय कहलाता है । 'स्यात् ' शब्द से रहित होने पर भी इसमें निश्चयाभासपने का प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि यह उपनय से रहित है। "
यहाँ एक विशेष बात यह कही गई है कि निश्चयनय, 'स्यात्' पद से रहित है, लेकिन उसमें स्यात् पद के बिना भी निश्चयाभासपने की आपत्ति नहीं आती है, क्योंकि वह उपनय से रहित है। तात्पर्य यह है कि निश्चयनय में स्यात् पद नहीं लगता है, क्योंकि वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप का कथन करता है, जबकि व्यवहारनय में स्यात् पद लगता है, क्योंकि वह भेद और उपचार से कथन करता है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय में अपेक्षा लगती है, इसलिए उसमें स्यात् पद लगता है और निश्चयनय तो वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताता है, इसलिए उसमें स्यात् पद क्यों लगाया जाए ? क्योंकि उससे तो अनर्थ होने का प्रसंग उपस्थित होता है ।
जैसे, हम कहें कि ' आत्मा कथंचित् चेतन है और कथंचित् अचेतन है ?' यद्यपि नयों की अपेक्षा यह कथन सम्यक् है, लेकिन फिर भी, प्रश्न यह है कि ' आत्मा कथंचित् चेतन है या वास्तविकरूप से चेतन है', अतः 1. श्रुतभवनदीपक नयचक्र, पृष्ठ 21
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नय - रहस्य